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Monday, December 13, 2021

साहिब बीबी और ग़ुलाम


साहिब बीबी और ग़ुलाम


सन 1962 में आई महान अभिनेता-निर्माता गुरुदत्त की प्रसिद्ध हिंदी फिल्म साहिब बीबी और ग़ुलाम किसी परिचय की मोहताज नहीं। फिल्म के सभी किरदार मानो पर्दे पर अभिनय नहीं करते बल्कि असल ज़िंदगी के पात्र हों ऐसा प्रतीत होते हैंछोटी बहू के रूप में मीना कुमारी तो हिंदी फिल्म इतिहास में अमर ही हो गई।       

इस फ़िल्म और इसके संवादों को कालांतर में ना जाने कितने रूपकों में गढ़ा गया। आजदुनिया बहुत बदल चुकी हैकिंतु फिर भी यह फ़िल्म सत्य ही प्रतीत होती है। आज के कम्युनिस्ट चीन के हालात को देखा जाए तो यह फिल्म उस पर एक सफल व्यंग साबित होती है।       

डी॰के॰ सप्रू द्वारा निभाया गया पात्र चौधरी साहिबचीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग पर बखूबी फिट बैठता है। इस समय जिनपिंग महोदयमंझले चौधरी जैसे तानाशाह बने हुए है जिन्हें पूरी दुनिया को अपने कब्जे में करना है। जिस प्रकार फ़िल्म में बड़े चौधरी का किरदार नहीं दिखाया गया हैइसे दर्शकों के विवेक पर छोड़ दिया गया की जब मंझले और छोटे चौधरी ऐसे भयावह है तो खुद ही समझ जाओ की बड़े चौधरी क्या रहे होंगेठीक इसी प्रकार आज की युवा पीढ़ी अपने विवेक का प्रयोग कर समझ जाए की चीनी बड़े चौधरी माओ जेडोंग क्या रहे होंगे

फ़िल्म के एक दृश्य में जब एक गरीब किसान अपनी क़ब्ज़ा हुई ज़मीन वापिस माँग रहा होता है तो हवेली की छत से मंझले चौधरी उसकी तरफ अपनी खौफनाक आँखों से देखते हैं और आगे उस गरीब किसान का क्या हश्र हुआ होगा इस का अंदाज़ा दर्शक सिर्फ़ आँखों के लाल रंग से ही लगा लेते है। यह दृश्य की पटकथा अपने आप में ही इतनी पूर्ण है कि इसके लिए आगे का हाल दिखाना फिल्म में ज़रूरी ही नहीं बचा। ठीक इसी प्रकार मंझले चीनी चौधरी साहेब हांगकांगताइवानभारतभूटान, फ़िलिपींज़ इत्यादि ना जाने कितने ग़रीब देशों की जमीन हड़पे बैठें हैं और वापिस माँगने की आवाज़ पर हवेली रूपी ग्रेट हॉल ऑफ पीपल’ की बालकनी पर खड़े मंझले चौधरी अपनी लाल सुर्ख़ आँखे दिखाने से बाज नहीं आते। जैसे नीचे खड़े हुए सैनिक उनके एक इशारे की बांट जोह रहे हों।                    

चौधरी को कोई फर्क नहीं पड़ता की हवेली में रहने वाले उसके सगे सम्बन्धी ठीक प्रकार से हैं या नहींउसने सबकी आजादी समान रूप से पिंजरे में बंद करी हुई है। बाहर से देखने में सब उजला-उजलास्वर्णिमकंचनअद्भुत नज़र आता है परंतु चहुँओर घनघोर अंधेरा और पहरा है। चौधरी साहिब के साम्राज्य में कोई शख्स कितना भी अपना हो पर वह साँस भी अपनी मर्ज़ी से नहीं ले सकता।  

फ़िल्म के एक दृश्य में चौधरी साहिब अपनी छत पर अपने चमचों से घिरे बैठे हैं और सामने वाली छत पर उनका प्रतिद्वंदी छेनी दत्त बैठा है। फिर शुरू होता है दोनों तरफ़ से कबूतर बाज़ी का मज़ेदार खेलदेखना यह है कि कौन किस के कितने कबूतर अपनी तरफ कर पाता है। आख़िर में चौधरी के कबूतरदत्त के दो-चार कबूतर अपनी तरफ ले आने में सफल हो ही जाते हैं। जिसके बाद छेनी दत्त अपने नौकर को एक हज़ार रूपेए (उस जमाने में) देकर कहता है जाओ चौधरी से अपने कबूतर वापिस ले आओ। मानो ऐसा प्रतीत होता है जैसे आज के युग के चीन और अमरीका खेल रहे हों। दोनों एक-दूसरे के व्यावसायिक पूरक पर दोनों को एक-दूसरे फूटी आँख ना सुहाते हों। 

फिल्म का छोटी बहू किरदार काफी निराला हैचीन के संदर्भ में कहा जाए तो वहाँ न जाने कितनी छोटी बहुएँ हैं। यहाँ छोटी बहू से मतलब किसी स्त्री विशेष से नहीं अपितु गुण विशेष से है। चीन में प्रतिभा की कोई कमी नहींजिस भी क्षेत्र में देख लो – खेलविज्ञानव्यापार आदिवहाँ प्रतिभाएँ आपर हैं। पर इन सब छोटी बहू के स्वामी इनको प्यार नहीं करतेवे किसी और ही भोग विलासिता में संलग्न हैं। ये सभी छोटी बहुएँ अपना सर्वस्व अपने स्वामी पर वारने को लालायित हैं। उनके चरणों में ज़रा सी इज़्ज़त पाने को ये वो सब कार्य कर रहीं हैं जो इनको सपने में भी नहीं सुहातेपरंतु स्वामी के मन ये कभी ना भा सकेंगीं। इनके स्वामी इनको अपने पैरों की जूती से ज़्यादा कुछ नहीं समझते। क्षण भर के लिए वो इनके पास आ भी जाए तो भी ये उनके लिए मनोरंजन की वस्तु से ज़्यादा कुछ भी नहीं। 

फिल्म के एक बेहद संजीदा दृश्य में जब मीना कुमारी अपने पति छोटे चौधरी से कहती हैं किमुझे भी अपने साथ बाहर ले चलोचाहे तो अपनी दूसरी प्रेमिका (नाचने-गाने वाली) के रूप में ही क्यों नहीं। इस पर छोटे चौधरी भड़क जाते हैं और कहते हैंहोश तो ठिकाने हैं तुम्हारे! बड़ी हवेली की इज्जत को बदनाम करना चाहती हो। तुम वो ही करो जो घर की दूसरी बहुएँ करती हैं – गहने तुड़वाओगहने बनवाओकौड़ियाँ खेलो और सोओ आराम से। इस दृश्य में एक अलग सी तल्ख़ी है – यह सून मीना कुमारी ज़ोर से हसने लगती हैं और कहती हैं – “तुम्हारी जरूरत कैसे हुई मेरी तुलना घर की बाक़ी बहुओं से करने कीक्या उन्होंने वो सब किया है जो मैंने तुम्हारे लिए किया है। मैंने तुम्हारे लिए शराब पी है!” चीन में ऐसी ही अपने आप में सर्वगुण सम्पन्न हज़ारों छोटी बहुएँ है जैसे मशहूर बिजनेस टाइकून जैक मामशहूर टेनिस खिलाड़ी पेंग शुईआर्टिस्ट आइ वीवीअभिनेता झाओ वेपूर्व इंटरपोल चीफ मेंग होंगवेकिताब विक्रेता ग़ुई मिंहैअरबपति बिजनेस महिला विट्नी दुआंरियल एस्टेट मोगल रेन झिकीयंगमानवाधिकार कार्यकर्ता वंग कुआँझंगनोबेल पुरस्कार विजेता ल्यू क्षीयोबो की पत्नी ल्यू क्षीय इत्यादि ना जाने कितनी छोटी बहू रूपी किरदार गुमनामी के अंधेरों में खो गए। ये सभी अपने-अपने समय पर शीर्ष पर रहेफिर कुछ ना कुछ अप्रिय इनके जीवन में घटा और ये लोग अचानक से ग़ायब हो जाते हैं और उनकी कोई खबर नहीं आती।    

यह बिलकुल ऐसा ही है जैसेफ़िल्म के उत्तरार्ध में जब मंझले बाबू को अपनी ही हवेली की छोटी बहू पर शक हो जाता है (छोटी बहू तो सिर्फ़ अपने स्वामी की ख़ुशहाली चाह रही थी)तो वो उसको ग़ायब करवा देते हैं। उसके बाद छोटी बहू की कोई खैर खबर नहीं आती। फिल्म में हरिंद्रनाथ चट्टोपाध्याय का घड़ी बाबू वाला किरदार बहुत सार्थक है – “बड़े-बड़े राजा महाराजा नहीं रहेये हवेली भी नहीं रहेगीएक दिन सब ख़ाक हो जाएँगे                                       

अंत में जब भूतनाथ बाबू हवेली तुड़वा रहे थेतब उसी हवेली में एक कंकाल मिलने से मजदूरों में हड़कंप मच जाता है। जब भूतनाथ बाबू उस कंकाल को देखते हैंतो उसके खुद होश फाक्ता हो जाते हैंकलाई के कंगन से भूतनाथ बाबू पहचान जाते हैं की यह कंकाल छोटी बहू का ही हैं। दर्शकों के आगे मानो बिजली सी कौंध जाती हैजैसे सारा सत्य दर्पण की तरह साफ हो गया हो। सब जान गए कि इसके पीछे कोई और नहीं वरन मंझले चौधरी ही थेऔर मौत का कारण बना सिर्फ़ शक।

इसी तरह एक ना एक दिन चीन का सूर्यास्त होना भी तय है। और फिर होगी जनता की क्रांति  (जिस तरह फ्रांसीसी क्रांति के बाद लुई-16 के साथ हुआ)और जनता में से ही उठे कोई भूतनाथ बाबू जब हवेली रूपी ग्रेट हॉल ऑफ पीपल को ढ़ा देंगे तब इन सभी छोटी बहुओं के कंकाल निकल आएँगेऔर सारी दुनिया के सामने यह स्पष्ट हो जाएगा की इसके पीछे कोई और नहीं बल्कि मंझले चौधरी का वो शक था, जहां उन्हें अपनी तानाशाही सत्ता की जमीन खिसकती नजर आ रही थी ।  

   

(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

 

-  जगदीप सिंह मोरशिक्षाविद





Tuesday, November 23, 2021

ना ख़ुदा ही मिला ना विसाल -ए -सनम


ना ख़ुदा ही मिला ना विसाल -ए -सनम 

विगत एक वर्ष चर्चा में रहे तीनों कृषि कानूनों की यात्रा भी कानूनों की तरह ही दिलचस्प रही| जैसे कोरोना काल में चुपके से अध्यादेश ला इनका सृजन किया गया था, वैसे ही प्रधानमंत्री ने देश के नाम संबोधन कर इनका विसर्जन भी कर दिया | कानूनी भाषा में कहें तो यथा स्थिति बनी रहेगी, ना कोई नया नियम लागू हुआ, ना पुराने में कोई संशोधन | परंतु कृषि क़ानूनों से उत्पन्न आंदोलन के कारण देश के हालात यथा स्थिति में नहीं रहे, इस एक साल में देश ने बहुत कुछ बिगड़ते देखा और अपने लगभग सात सौ सपूतों को खोया | बच्चों के सिर से पिता का साया उठ गया तो कहीं माताओं ने अपने जिगर के टुकड़े को जाते देखा | बहनों का बलिदान भी कम नहीं रहा, अनेक बहनों ने अपनी जमीन बचाने लिए देह त्याग दिए | 

इस आंदोलन से पूरे भारत को बहुत कुछ सीखना चाहिए | अगर हम अब भी कुछ ना सीखे तो हमारा भविष्य में टूटना तय है | सर्वप्रथम हर भारतवासी को यह बात स्वीकार करनी होगी कि नेताओं का किसी भी नवीन नीति, कानून या कार्य निर्धारण से निजी तौर पर कुछ भी नहीं जाता, उनकी छवि जस की टस बनी रहती है, पर जनता आपस में जन्मों के बैर पाल लेती है | नेता जी कानून पारित करने पर भी महान थे और कानून वापिस लेने पर भी महान ही बने रहे, परंतु देश और समुदाय अलग-अलग हो गए | जब क़ानून लाए गए तब भी इसको मास्टर स्ट्रोक बताया गया, वापिस लेने पर भी मास्टर स्ट्रोक ही कहा गया। नेता जी ज्यों के त्यों मास्टर ब्लास्टर बने रहे, आउट हुई तो भोली भाली जनता, जो कभी राजनीतिज्ञों के जाल में फंसी तो कभी धर्म-समुदाय के ठेकेदारों के। 

आंदोलन में सबसे ज्यादा रोटियां सेकी टी॰वी॰ न्यूज़ चैनलों के एंकरों ने। टी॰वी॰ डिबेटों ने कोई कसर नहीं छोड़ी देश का ध्रुवीकरण करने में। आंदोलन में एक ऐसा मोड़ भी आया जब इसको सिख बनाम हिन्दू बनाया गया, जाट बनाम छत्तीस बिरादरी कहा गया तथा अनेकों अनेक बिंदुओं पर ध्रुवीकरण किया गया | खालिस्तानी, पाकिस्तानी, चीनी, कम्युनिस्ट, नक्सल, अर्बन नक्सल, माओवादी एवं ना जाने क्या क्या अलंकारों का प्रयोग आंदोलनकारियों के लिए इन टी॰वी॰ एंकरों ने किया | जहां एक ओर समूचे सिख समुदाय का पर्याय बन कर दिलजीत दुसांज उभरे वहीं कंगना रनौत सत्ता पक्ष की कार्यकर्ता बन गई, और इन दोनों ने ट्विटर पर बखूबी अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया | आज जब ये दोनों महान कलाकार फुर्सत में बैठेंगे तो अपनी ही कही बातों पर शर्मा जाएँगे | मशहूर शायर बशीर बद्र ने खूब ही कहा है - "दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे, जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिंदा न हों" | बीते एक वर्ष में कृषि क़ानूनों से जुड़ी गतिविधियों पर मुड़ कर देखा जाए तो हर व्यक्ति अपने कृत्यों पर लजा जाए | 

संसद में स्वयं प्रधानमंत्री ने आंदोलनजीवी, परजीवी जैसे शब्दों का प्रयोग किया तो उत्तर प्रदेश के मंत्री ने दो मिनट में ठीक कर देने की बात कही | करनाल के अफसर ने सिर फोड़ने का आदेश दिया तो मुख्यमंत्री महोदय ने कहा कि "ठा लो लठ्ठ" (बाद में इस बयान को उन्होंने वापिस ले लिया) | आज अगर देखा जाए तो इस सब से क्या हासिल हुआ? सिर्फ समाज में मतभेद पैदा हुए और मतभेद मनभेद में परिवर्तित भी हुए | सोशल मीडिया पर ना जाने कितने ही दोस्त दुश्मन हो गए, वे आज जरा भी अगर सोचते होंगे तो अपने को ठगा सा पाते होंगे | टी॰वी॰ वाद-विवाद सर्कस एवं सोशल मीडिया ट्रोल जंबुरे जिन्होंने पक्ष समर्थन में पूरा ज़ोर लगा दिया था  और चारों ओर अपने कटाक्षों के विषैले बाण चलाए आज अचानक क़ानून वापस होने की घोषणा पर सोचते तो ज़रूर होंगे, "ना ख़ुदा ही मिला ना विसाल-ए-सनम"। उधर क़ानून विरोधियों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी, २६ जनवरी की घटना देश के इतिहास में हमेशा काले अक्षरों में लिखी जाएगी। पिछले एक साल से दिल्ली की गर्दन तीन तरफ से दबाई हुई है एवं देश भर में जगह-जगह बंद किए गए, जिस से साधारण जनमानस को कितनी परेशानी उठानी पड़ती है इसका कोई ज़िम्मेदार नहीं है। टीकरी एवं सिंघु बॉर्डर पर लगने वाली अनेकों व्यावसायिक केंद्र, फ़ैक्टरी, मॉल एवं दुकान वालों का पूरे एक साल से काम चौपट हो गया एवं करोड़ों का नुकसान हुआ जिसका कोई ज़िक्र भी नहीं करता। आज कोई उनकी तरफ़ देख कर बोले कि हमने क्या पाया? क्या अब क़ानून वापिस होने पर किसानों की आय बढ़ जाएगी? क्या अब उनकी जीवन शैली में कोई बड़ा सकारात्मक बदलाव होने वाला है?           

यह समझना कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि फैसला बदलने का कारण क्या है? जब सत्ता पक्ष को लगा कि चुनाव सिर पर है और राजनीतिक जमीन सरक रही है तो यह कदम उठाना ही बुद्धिमानी होगी | 

आज समस्त भारत के नागरिकों को यह समझना होगा कि वे इन नेताओं के चक्कर में आ कर सामाजिक ताना बाना खराब नहीं करें | हिन्दू-मुसलमान, हिन्दू-सिख, सुवर्ण-दलित की राजनीति से दूर रहें एवं अपने और अपने परिवार का ध्यान रखें | मरने वाले के घर जाकर देखें कि बाकी रह गए परिवारजनों पर क्या बीत रही है | "वो जो बन के दुश्मन हमें जीतने निकले थे, कर लेते अगर मोहब्बत तो हम खुद ही हार जाते।"

- जगदीप सिंह मोर, शिक्षाविद



Sunday, November 14, 2021

बदलते परिप्रेक्ष्य में बाल दिवस


 बाल दिवस विशेषांक

बदलते परिप्रेक्ष्य में बाल दिवस

हर सुबह विद्यालयों की ओर जाते हंसते खेलते बच्चों की क़तारें दिखना मानो पिछली सदी की बात हो गई। हर शहर में प्रातः किताबों की दुकानों के सामने विभिन्न स्कूलों की वर्दी पहने छात्रों की भीड़; साइकिल, रिक्शा, आटो एवं बसों से सरपट आते बच्चे, दौड़ते भागते विद्यार्थी अब प्राचीन बातें लगती हैं।


मार्च 2020 में जब प्रथम लॉकडाउन लगाया गया तब यह किसी ने भी नहीं सोचा था कि आने वाले दो साल कोरोना का ग्रास बन जाएँगे। अगर यह कहा जाए कि इस सर्वव्यापी महामारी ने सबसे ज़्यादा विद्यार्थी जीवन को प्रभावित किया तो यह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। जहां एक ओर कोरोना का पुराना डर अभी समाप्त नहीं हुआ है, वहीं दूसरी ओर डेंगू, वायरल बुखार एवं वायु प्रदूषण ने समस्या दोगुनी कर दी है।   

            

14 नवंबर का दिन हर विद्यालय में बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। कोरोना काल से पहले इस दिन बच्चे अपने पूरे उमंग में रहते थे एवं विद्यालयों में एक पर्व जैसा उत्सव का माहौल हुआ करता था। बच्चों को इस दिन का इंतज़ार महीनों से रहता था, आज के दिन विद्यालयों में पढ़ाई नहीं होती थी परंतु विभिन्न प्रस्तुतियों के ज़रिए छात्र समाँ बांध दिया करते थे। परंतु विगत दो वर्षों से सब सूना सूना है । यूँ तो कुछ स्कूल खुल गए हैं, किंतु वह पहला सा उल्लास नहीं लौटा। आज जहां कोरोना दिशानिर्देशों के कारण कोई भी ग्रुप एक्टिविटी करने में विद्यालय सकुचा रहे हैं वहीं अभिभावकों के मन का डर भी अभी निकला नहीं है। छोटे बच्चों को टीका ना लगना भी एक कारण है कि कोई सकारात्मक पहल नहीं कर रहा है। कोरोना काल के बाद की स्कूली दुनिया पूर्णतः बदल चुकी है। टर्म-1 बोर्ड परीक्षा के निकट होने का असर भी बाल दिवस कार्यक्रमों पर दिखाई दे रहा है।  


शिक्षा का नया दौर चुपके से दबे पाओं आ अपनी जगह बना चुका है। अब यह है ऑनलाइन शिक्षा प्रणाली का युग। बीते दो सालों में यही न्यू नॉर्मल हो चला है। और अब अगले सत्र से स्कूल पूर्णतः खुल भी जाए फिर भी यह नवीन शिक्षा पद्दती जाने वाली नहीं हैं। स्कूली शिक्षा का एक बड़ा भाग अब सदा के लिए ऑनलाइन ही हो चला है। शुरुआती दौर में विद्यालयों, शिक्षकों, अभिभावकों एवं छात्रों को चुनौतियों का सामना करना पड़ा परंतु सभी ने इसको सहज ही स्वीकार भी लिया और अब यहीं कार्यरत शिक्षा प्रणाली बन चुकी है। आज समय की मांग देखते हुए बाल दिवस भी ऑनलाइन ही हो चला है। हरियाणा सरकार द्वारा हर जिले के बाल भवन में होने वाले कार्यक्रम भी विगत वर्ष ऑनलाइन हो गए। 


आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू जी के जन्मदिन को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है, क्यूँकि वे बच्चों से बहुत प्यार किया करते थे। बच्चे उन्हें चाचा नेहरू कह कर पुकारते और नेहरू जी उनमें भविष्य के भारत को देखते। तब से यह परम्परा निरंतर चली आ रही है। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी का बाल प्रेम चाचा नेहरू से कम नहीं है। मोदी ने अनेकों कार्यक्रमों के ज़रिए पिछले सात सालों में बच्चों से वार्तालाप लिए। जिनमें से परीक्षा पर चर्चा, शिक्षक दिवस, बाल दिवस एवं मन की बात प्रमुख़ रहे। 


कोरोना के बाद शिक्षा जगत की परिस्थितियाँ बिल्कुल बदल चुकीं हैं। ऐसे में केंद्र एवं राज्य सरकारों को आज बाल दिवस के दिन यह संकल्प लेना चाहिए कि भारत के उज्ज्वल भविष्य के लिये बच्चों की ज़रूरतों को हर हाल में पूरा करना होगा। अगर हम अपने सपनों का स्वर्णिम भारत बनाना चाहते हैं तो शिक्षा एवं बाल सुधार पर विशेष बल देना होगा। आज भारत के छात्रों को अमरीका, सिंगापुर, अंग्रेज़ी एवं चीनी युवा वर्ग से कड़ी चुनौती मिल रही है।

     

आज समय की माँग यह है कि अगर शिक्षा को सुचारु रूप में चलाना है तो हर छात्र तक तकनीक को उपलब्ध करवाना होगा। सरकार एवं अभिभावकों को अब यह समझ लेना होगा कि उनके बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए तकनीकी आवश्यकताएँ पूरी करनी होंगी। हर घर में अब एक कंप्यूटर तथा डाटा कनेक्टिविटी होना अनिवार्य हो चुका है। स्कूली ही नहीं वरन विश्वविद्यालय शिक्षा भी अब इसी ओर अग्रसर है। भविष्य में होने वाली सभी परीक्षाएं भी ऑनलाइन प्रारूप में ही ली जाएँगी। इस बार जब नीट, आई॰आई॰टी॰ जे॰ई॰ई इत्यादि परीक्षाएँ ऑनलाइन ली गयी, तो बहुत छात्रों को समस्याओं का सामना करना पड़ा। 


नेताओं की भाषण बाज़ी से कुछ हासिल नहीं होने वाला है। सरकार को बजट में प्रावधान कर देश के छात्रों के लिय नवीन बुनियादी ढाँचा तैयार करना होगा, जिसमें देश के अंतिम कोने में बने विद्यालय तक तकनीक एवं डाटा कनेक्टिविटी की उपलब्धता सुनिश्चित करनी होगी। 


प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक श्री विकास अत्री कहते हैं कि गत दो वर्षों में विद्यार्थियों का बहुत नुक़सान हुआ है। बच्चों के स्कूल बंद थे, रिश्तेदारों के घर भी आना जाना नहीं हुआ, ऐसे में बच्चों का समाजीकरण बिल्कुल शून्य हो गया। इसे मनोविज्ञान में बहुत बड़ी चुनौती माना गया है। श्री अत्री कहते हैं कि इसके दुष्परिणाम भविष्य में दिखायी देंगे। खेलों से भी बच्चे दूर हो गए, जिसका असर उनकी शारीरिक विकास पर दिखने लगा। निरंतर कम्प्यूटर स्क्रीन को निहारने से आँखों पर मोटे चश्में लग गए। 


शिक्षा सत्र 2021-22 को तो पूर्ण ही समझो। नए सत्र से शिक्षा के मानक भी बदले जा चुके होंगे। यह महामारी कब तक चलेगी, कोई नयी बीमारी या अड़चन, सुरसा रूपी मुँह कब खोल ले, यह कहा नहीं जा सकता। ऐसे में स्कूली शिक्षा कब तक अपने पहले प्रारूप में आ पाएगी यह कहना बहुत मुश्किल है, तथा विवेकी व्यक्ति वही है जो समय के बदलाव को स्वीकारे, ना कि उसकी आलोचना में ही समय गंवाता रहे। 


अगर सच्चे अर्थ में बाल दिवस को साकार करना है तो हमें अपने बच्चों से यह वादा करना होगा की हम उनको विश्वस्तरीय विद्यालय एवं महाविद्यालय प्रदान करेंगे। उनके सर्वांगीण विकास को प्राथमिकता दे बाल स्वास्थ्य एवं खेल कूद पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। वरना आज का दिन भी साल के अन्य किसी दिन की तरह ही हो कर रह जाएगा एवं अपनी प्रासंगिकता खो देगा। समाज को भी एक जुट हो आगे आना चाहिए एवं अपने नन्हें मुन्नों को एक सुनहरा अवसर प्रदान कर खोए हुए समय की आपूर्ति करनी चाहिए।  

                           

हर छात्र को भी इस बदलाव को स्वीकारना होगा एवं अपनी शिक्षा पद्धति में यथा अनुचित बदलाव कर अपने को शीर्ष तक ले जाना होगा। छात्र टाईम-टेबल बना अपनी पढ़ाई करें, पूरा दिन मोबाइल की स्क्रीन को ना निहारें। शीत ऋतु में बच्चे अपनी सेहत का ध्यान रखें एवं अपनी पढ़ाई जारी रखें। बोर्ड परीक्षा वाले विद्यार्थी सैम्पल पेपर ज़रूर हल करें एवं बदले हुए सिलेबस के अनुसार ही पढ़ाई करें। सभी छात्रों को बाल दिवस की हार्दिक बधाइयाँ।

           

- जगदीप सिंह मोर, शिक्षाविद

Saturday, November 13, 2021

सी.बी.एस.ई. ने जारी की टर्म-1 की डेट-शीट


सी.बी.एस.ई. ने जारी की टर्म-की डेट-शीट  


सी.बी.एस.ई. टर्म-परीक्षा  -  डेट-शीट

कक्षा दसवीं

कक्षा बारहवीं

30 नवम्बर – समाजिक विज्ञान  

3 दिसम्बर – अंग्रेज़ी 

2 दिसम्बर – विज्ञान  

6 दिसम्बर – गणित 

4 दिसम्बर – गणित 

7 दिसम्बर – शारीरिक शिक्षा 

8 दिसम्बर – कम्प्यूटर 

8 दिसम्बर – बिज़नेस स्टडी 

9 दिसम्बर – हिंदी 

10 दिसम्बर – फ़िज़िक्स 

11 दिसम्बर – अंग्रेज़ी 

13 दिसम्बर – अकाउंटन्सी 

 

14 दिसम्बर – रसायनिक विज्ञान  

15 दिसम्बर – अर्थशास्त्र 

16 दिसम्बर – हिंदी 

17 दिसम्बर – समाजिक विज्ञान  

18 दिसम्बर – बायआलॉजी 

(सम्पूर्ण डेट शीट बोर्ड की वेब साइट से प्राप्त करें)

सी.बी.एस.ई. ने कक्षा दसवीं एवं बारहवीं की प्रथम टर्म परीक्षा की डेट- शीट जारी कर दी है। इसके साथ ही सोशल मीडिया पर कई दिनों ने चल रही अटकलें शांत हो गयी। शिक्षकों एवं छात्रों ने चैन की साँस ली। 

कक्षा दसवीं की परीक्षा 30 नवम्बर एवं कक्षा बारहवीं की परीक्षा 1 दिसम्बर से प्रारम्भ होंगी। डेट-शीट के साथ ही बोर्ड ने अहम दिशानिर्देश भी जारी किए। इस बार की परीक्षा अपने विद्यालय में ही ली जाएँगी। छात्रों का अपना स्कूल ही बोर्ड सेंटर होगा। परीक्षा बहु विकल्पीय प्रश्नपत्र के रूप में ली जाएगी जिसका प्रश्नपत्र बोर्ड की तरफ़ से ही आएगा। हर सेंटर पर बोर्ड बाहर से निरीक्षक नियुक्त करेगा। 

परीक्षा केंद्र में कोरोना गाइड-लाइन का पालन होगा। छात्रों को उत्तर पुस्तिका में सिर्फ़ पेन का इस्तमाल करना होगा। प्रश्नपत्र में हर प्रश्न के चार विकल्प होंगे, जिसमें से एक सही उत्तर पर ओ॰एम॰आर॰ उत्तर पुस्तिका में सही निशान लगाना होगा। विद्यार्थियों की सहूलियत एवं प्रथम बार इस प्रकार की परीक्षा देने के कारण बोर्ड ने उत्तर पुस्तिका में कुछ बदलाव किए हैं। ओ॰एम॰आर॰ उत्तर पुस्तिका में एक अतिरिक्त गोल बिंदु दिया गया है, जिससे हर प्रश्नअंक के लिए पाँच गोल बिंदु होंगे। अगर छात्र गलत बिंदु भर देता है तो उसे काट के पाँचवें बिंदु में सही विकल्प का अंक (क, ख, ग, घ) लिख सकता है। हर प्रश्नपत्र 80 अंक का होगा तथा छात्रों को 90 मिनट में प्रश्नपत्र हल करना होगा। प्रश्नपत्र ‘रीडिंग-टाइम’ अतिरिक्त 20 मिनट दिया जाएगा। परीक्षा का समय 11:30 से 1:00 बजे तक निर्धारित किया गया है।  


सभी छात्र अपना एक टाइम-टेबल बनाये एवं पाँचों विषयों को बराबर समय दें, रोज़ कम से कम छः घंटे ज़रूर पढ़ेंटाइम-टेबल इस प्रकार बना हो जिसमें सात घंटे की नींद का भी पूर्ण प्रावधान होबोर्ड  ने सभी विषयों के सैम्पल पेपर एवं उत्तर पुस्तिका पहले ही जारी किए हुए  हैं। यह सी.बी.एस.ई. की वेब-साइट पर निशुल्क उपलब्ध हैं। छात्र इन्हें अच्छे से हल करें एवं प्रश्नपत्र नियमित समय में ही पूरा करने की कोशिश करें। इस परीक्षा में नेगेटिव मार्किंग नहीं है। 


इन दिनों छात्र किसी भी कुधारणा का शिकार होने से बचें, व्यर्थ समय ना गवाएँ एवं मौसमी बदलाव व डेंगू के प्रकोप से अपने को बचाएं। परीक्षा के दिनों में बीमार पड़ना परिणाम पर असर दिखा सकता हैं

             

-       जगदीप सिंह मोरशिक्षाविद

 


 

Thursday, September 30, 2021

सी.बी.एस.ई. बोर्ड परीक्षा निकट


सी.बी.एस.ई. बोर्ड परीक्षा निकट 


कोरोना महामारी ने पिछले दो सालों से पूरी दुनिया को अपना ग्रास बनाया हुआ है। यह कहना कोई अतिशियोक्ति नहीं होगा कि सम्पूर्ण जगत में अगर इस महामारी ने किसी को सबसे ज़्यादा प्रभावित किया है, तो वह है शिक्षा का क्षेत्र। पिछले दो वर्षों में स्कूली शिक्षा ने बहुत कुछ खोया है एवं अनेकों नवीन प्रयोग भी किए हैं। जहाँ ऑनलाइन शिक्षा पद्दती अब न्यू नॉर्मल हो चली है वहीं परीक्षा के स्वरूप में भी कई बदलाव किए गए हैं। इसी का उदाहरण है सी.बी.एस.ई. द्वारा 5 जुलाई 2021 को जारी किया सर्कुलर – ‘Acad-51/2021’ के अनुसार निर्धारित की ‘टर्म परीक्षाएँ’। इस साल कक्षा दसवीं एवं बारहवीं कि बोर्ड परीक्षाएँ दो भागों में ली जाएँगी – प्रथम अवधि नवम्बर में तथा द्वितीय अवधि परीक्षा मार्च महीने में। 


पाठ्यक्रम को दो बराबर भागों में बाँटा गया, पहले भाग (आधे पाठ्यक्रम) की परीक्षा नवम्बर महीने में ली जाएगी। यह परीक्षा पुराने सब्जेक्टिव बोर्ड प्रश्नपत्र के बिलकुल विपरीत बहु विकल्पीय प्रश्नपत्र के रूप में ली जाएगी। हर विषय का प्रश्नपत्र मल्टिपल चॉईस क्वेस्चन (एम॰ सी॰क्यू॰) आधारित होगा। प्रश्नपत्र में 50 प्रश्न होंगे एवं हर प्रश्न के 4 विकल्प दिए होंगे, छात्रों को इन चार विकल्पों में से एक को चुन कर ओ॰एम॰आर॰ उत्तर पुस्तिका में सही निशान लगाना होगा। हर प्रश्नपत्र 80 अंक का होगा तथा छात्रों को 90 मिनट में प्रश्नपत्र हल करना होगा। 


प्रथम टर्म परीक्षा की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है| परीक्षा में अब केवल एक महीने का समय रह गया है| बोर्ड परीक्षा, छात्रों के लिए अपने साथ बहुत सारा दवाब लेकर आती है| इस तरह की परीक्षा जहाँ एक ओर छात्रों के लिए एक नवीन चुनौती है वहीं दूसरी ओर एक सुनहरा मौक़ा भी है। बोर्ड ने अब्जेक्टिव पेपर ला एक तीर से कई नीशाने साध लिए : एक ओर छात्रों को महीनों रट्टा लगा, याद कर, तीन घंटे लिखने वाली परीक्षा ने निजात दिला दिया वहीं सभी छात्रों को एक सामान पटल मोहिया करवाने में सकारात्मक पहल की है एवं  कोरोना महामारी में परीक्षा का नया प्रारूप खोज निकाला।


छात्रों से अनुरोध है कि वे इस एक महीने का सदुपयोग करें। छात्र अगर इस समय में अपनी मेहनत दुगुनी कर दें तो वे निसंकोच बोर्ड परीक्षा में बहुत अच्छे अंक प्राप्त कर सकेंगे| विद्यार्थियों को ज़रूरत है योजनाबद्ध तरीके से मेहनत करके इन तीस दिनों का भरपूर फ़ायदा उठाने की| सभी छात्र अपना एक टाइम-टेबल बनाये एवं पाँचों विषयों को बराबर समय दें, रोज़ कम से कम छः घंटे ज़रूर पढ़ें| टाइम-टेबल इस प्रकार बना हो जिसमें सात घंटे की नींद का भी पूर्ण प्रावधान हो| छात्र देर रात तक न जाग कर सुबह जल्दी उठकर पढ़ने की आदत डालें, सुबह पढ़ा हुआ ज्यादा देर तक याद रहता है| पहले हर विषय का आधा पाठ्यक्रम अच्छे से पूरा करें, उसे याद करें, फिर बाकी का सिलेबस पूरा करें| सिर्फ मौखिक रूप से पढ़ने पर निर्भर न रहें, उसे लिख कर सुनिश्चित करें कि जो उन्होंने पढ़ा है वो अच्छे से तैयार भी हुआ है या नहीं? इस तरह पढने से विद्यार्थियों का विषय के प्रति डर भी दूर होगा एवं उनका आत्मविश्वास भी बढ़ेगा| 


सी.बी.एस.ई. ने सभी विषयों के सैम्पल पेपर एवं उत्तर पुस्तिका जारी कर दिए हैं। यह सी.बी.एस.ई. की वेब-साइट पर निशुल्क उपलब्ध हैं। छात्र इन्हें अच्छे से हल करें एवं प्रश्नपत्र नियमित समय में ही पूरा करने की कोशिश करें। ग़ौरतलब रहे, कि परीक्षा में विद्यार्थी एक भी प्रश्न छोड़ कर ना आए। इस परीक्षा में नेगेटिव मार्किंग नहीं है। सी.बी.एस.ई. द्वारा जारी सर्कुलर में विशेषतः यह बात दर्शायी गयी है कि अगर अंक दशमलव में आते हैं तो उनको अगली बड़ी संख्या में राउंड ऑफ़ कर दिया जाएगा। विद्यार्थी अगर इस परीक्षा में अंकों की बढ़त बना लें तो मार्च परीक्षा में बहुत लाभ होगा। 


इन दिनों छात्र किसी भी कुधारणा का शिकार होने से बचें। यह देखा गया है कि विद्यार्थी अपना ज़्यादातर समय सिर्फ तीन प्रमुख़ विषयों पर केंद्रित कर देते  हैं, एवं इंग्लिश (भाषा) विषय को नज़रंदाज़ कर देते हैं। सभी को लगता है कि इंग्लिश तो आसान है आखिरी समय में देख लेंगे। इसी कारण उनकी पर्सेन्टेज कम रह जाती है। अंग्रेजी विषय एक चौथाई अंक समेटे हुए है एवं बारहवीं के बाद के लगभग सभी कोर्सेज इसी भाषा में हैं।


प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक श्री विकास अत्रि कहते हैं कि, “छात्रों के ऊपर दोस्तों, परिवार, विद्यालय एवं समाज का दवाब हमेशा रहता है जिस कारण कई बार वे घबराहट भी महसूस करने लग जाते हैं”| प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी में भी बच्चों से अपील की है की वो इन परीक्षाओं को एक उत्सव के रूप में स्वीकार करें| जिस प्रकार हम त्यौहार मानते हैं उसी तरह परीक्षा भी त्यौहार ही है, तो क्यूँ ना इनकी तैयारी भी धूम धाम से की जाये| छात्र परीक्षा के परिणाम की बिल्कुल भी चिंता ना करें बल्कि तैयारी में अपना शत प्रतिशत दें| परीक्षाओं में अभिवावकों का उत्तरदायित्व और भी ज्यादा बढ़ जाता है| अभिवावकगण बच्चों के ऊपर नकारात्मक दबाव बनाने से बचें, उनकी तुलना दुसरे बच्चों से बिल्कुल ना करें| मौसमी बदलाव से भी छात्र अपने को बचाएं, परीक्षा के दिनों में बीमार पड़ना परिणाम पर असर दिखा सकता हैं| ‘कर्म करो फल की इच्छा मत करो’ इस समय गीता का यह ज्ञान ही छात्रों की हर दुविधा का सटीक उत्तर है|   

-       जगदीप सिंह मोर, शिक्षाविद



 

Wednesday, September 8, 2021

बिन शिक्षक सब सून



बिन शिक्षक सब सून


सम्पूर्ण भारतवर्ष ने कुछ दिन पूर्व शिक्षक दिवस मनायाहर व्यक्ति ने अपने-अपने शिक्षकों को याद किया एवं व्हाट्सएपट्विटर तथा फेसबुक पर ढेरों मेसेज का ताँता लगा रहा। किंतु हमें अपने आप से एक प्रश्न पूछना चाहिए कि हम सब भारतवासी क्या सच में शिक्षकों को उनका उचित सम्मान देते हैं या ये सिर्फ़ सोशल मीडिया के दिखावे भर रह गया है


कोरोना महामारी के इन दो सालों ने हमारे शिक्षा जगत की नींव हिला कर रख दी। जहां एक ओर हर किसी ने बच्चों के भविष्य को ले कर खूब चिन्ताएँ दिखायीं एवं आने वाले समय के आलेखन पर खूब रेखाएँ खींची वहीं किसी ने भी प्रखर स्वर में शिक्षकों के भविष्य को लेकर चिंता नहीं दिखायीना ही इन दो वर्षों में शिक्षकों की जीविका किस प्रकार चली इस पर किसी का ध्यान गया। बुद्धिजीवियों ने बच्चों के मनोवैज्ञानिक स्तर का मूल्यांकन बखूबी किया पर शिक्षकों के मनोविज्ञान पर हर जगह अपने नेत्र मूँद लिए। 


दो दशकों का अनुभव समेटे प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक श्री विकास अत्रि कहते है: ज़रा बीते दो वर्षों पर नज़र डाल कर देखा जाए तो पता चले कि शिक्षक ने अपने आप को कितनी जल्दी नए अवतार में ढ़ाल लिया। कक्षा की चौक-बोर्ड-पेपर प्रणाली को छोड़ कम्प्यूटर-ज़ूम-गूगल होते शिक्षक आम हो गए। बिना किसी ट्रेनिंग और अभ्यास के शिक्षकों का अनंत कम्प्यूटरीकृत होना लाज़मी हो गया। श्री अत्रि बताते हैं किशिक्षकों ने अपने आप ही ये कम्प्यूटरी जटिलताएँ हल करी एवं विद्यार्थियों तक शिक्षा लाभ पहुँचाया। गूगल-मीटज़ूम वीडियोगूगल फॉर्मवीकलेट्समाइक्रसॉफ़्ट क्लासईमेलब्रॉड्कैस्ट इत्यादि ना जाने कितने असंख सॉफ़्ट्वेर में शिक्षकों को स्वतः ही पारंगत हासिल करना पड़ा। हर विषय के शिक्षकों को दोहरी भूमिका निभाते हुए तकनीक एवं विषय-ज्ञान में माहिर होना पड़ा। सबसे ज्यादा मुश्किलें संस्कृतहिंदीशारीरिक शिक्षागान-नृत्य के शिक्षकों को उठानी पड़ीतकनीक के साथ-साथ अंग्रेज़ी भाषा को भी साधना पड़ा। (क्यूँकि हर सॉफ़्ट्वेर अंग्रेज़ी भाषा में ही उपलब्ध है।)


हमारे देश में शिक्षक का दर्जा भगवान से भी ऊपर बताया गया हैपर इन दो वर्षों में गुरुओं की सुध किसी ने न ली। सबसे दयनीय स्थिति निजी स्कूल के शिक्षकों की रही। जहां एक ओर स्कूलों की फीस नहीं आई वहीं निदेशकों ने शिक्षकों को बाहर का रास्ता दिखा दियाजो बच गए उनके वेतन में भारी कटौती करी गयी और कार्य प्रणाली में भरसक नए प्रयोग किए गए। इस दौरान शिक्षकों को किन मानसिक सदमों से गुजरना पड़ा इस पर सभी मूकदर्शक बने रहे। शिक्षकों के ऊपर निदेशकों एवं अभिभावकों के कटु वचनों का दोहरा कुठाराघात किया गया। सरकार द्वारा भी सारी नीतियाँ छात्र केंद्रित ही रहीशिक्षकों का निरंतर उपहास ही हुआ।    


आने वाले दिन भी गुरुवरों के लिय कम चुनौती भरे नहीं होने वाले। शिक्षकों को निरंतर अपने कार्य कौशल में इज़ाफ़ा करना होगा एवं विषय ज्ञान के साथ साथ तकनीकी रूप से भी सुदृढ़ होना होगा। ऑनलाइन शिक्षा प्रणाली का नया दौर चुपके से दबे-पाओं आ अपनी जगह बना चुका है। बीते दो सालों में यही न्यू नॉर्मल हो चला है। और अब अगले सत्र से स्कूल खुल भी जाएँ परंतु यह नवीन शिक्षा पद्दती जाने वाली नहीं हैं। स्कूली शिक्षा का एक बड़ा भाग अब सदा के लिए ऑनलाइन ही हो चला है।


भारतीय शिक्षण तंत्र को कोरोना काल में यदि किसी ने संभाला हुआ है तो वो हैं हमारे शिक्षकगणसरकार ने तो कोरोना के आगे घुटने टेक दिए थेकोई भी दिशा निर्देश नहीं होते हुए भीशिक्षकों ने ऑनलाइन शिक्षा पद्धति को अपनाया एवं घर बैठे विद्यार्थियों को लाभान्वित किया। शिक्षकों के इसी भरसक प्रयास के कारण आज शिक्षा जगत में आशा की किरण दिखाई देती है। शिक्षकों ने अपने घर परिवार को त्याग कर चौबीसों घंटे छात्रों के लिए ऑनलाइन उपलब्ध होना स्वीकारा। 


आज हम सबका यह कर्तव्य होना चाहिए कि हम सब एक स्वर में सम्पूर्ण शिक्षक गण का अभिनंदन करें व दिल से कोटि कोटि धन्यवाद देंयही हमारी ओर से डॉ॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।


जगदीप सिंह मोरशिक्षाविद


 

Saturday, February 20, 2021


 

Such a Polarised Nation

India – with more than 1.3 billion people constitutes 18 percentage of the world’s population, is a country so diverse that many historians and philosophers have called it a continent in itself. The diversity could be seen in terms of geography, population, beliefs, languages, culture, religious practices, traditions etc. making the list endless. This diversity which was considered as our strongest binding factor is turning up as our strongest dividing factor. Of late, the country is undergoing a strong churning creating polarity within.

It is almost impossible to unite such a gargantuan population on any man made postulate or belief such a nationalism. Even ‘God’ has found his various avatars on this land but failed to unite people on single paradigm. With such a diverse country such as ours, the textbook concept of ‘unity in diversity’ seems to be restricted and flawed only to be found in bits and pieces. We are divided on the lines of religion, caste, geography, language, sects, gender, colour and what not. History remains the witness that our country was ideologically divided into left thinkers and right wingers. Of late, this division has grown further with a significant population being evolved as either ultra-left or hard-right, whereby both trying to prove themselves correct forgetting the wrong they are committing to the country. 

In the middle ages particularly during fifteenth and sixteenth century, theory of divine kingship was widely propagated where the monarch is believed to have derived his right to rule directly from God and is subjected to no earthly authority. King had absolute powers therefore had command over the church, hence propagating the superiority of his religion over his subjects. Later in the seventeenth century, when churches got powerful, they tweaked this theory and became agents of Gods and custodians of religion. They started bestowing powers to Kings, thereby becoming king makers. Church sometimes became so powerful that it could topple the powers of cabinet. This created a nexus between the clergies and nobility. However, clergies were never seen on the throne. They managed the religious diktats from behind the curtains. Rejecting these olden postulates the pioneers of Indian constitution believed in democracy and gave power to people. The constitution writers had the choice then to define the religion of the state but choose to remain secular making state ‘religion-less’. However, now in twenty-first century India, it seems as if clergies in robes have gained powers (although democratically) and trying to establish supremacy of their religions over others, thereby polarising the country further.

India was divided ever, but since partition the division was never so visible on the top as it is now. Today’s polarisation could hearsay find its roots thousands of years back to the first invasion in India but untoward incidents after partition acted as warehouses of supressed emotions for either communities that are finding their escape now. Partition massacre, Bombay bomb blasts, mosque demolition in Ayodhya, Operation Blue Star, 1984 Delhi riots, Kashmir of 90s, Godhara riots etc. have all contributed in polarised the nation.

Due to this massive reach of unrestricted communication technology, people have compartmentalised themselves on such niche grounds that it seems quite impossible to unite the country again. Free online Social Media platforms, television news channels and certain sections of print media fuelled the fire further by imposing their own cooked up narratives to garner populist support and TRPs, thereby creating the poles so apart that it appears insurmountable today to dismantle them and create a new homogenised world. Governments and oppositions have their own IT cells working day-night on online messaging and social media apps to divide the country further on various artificially created grounds in order to create pools of voters acting as remote controlled objects that will work on like minded ideologies. Fake messages and documents are being created and circulated in order to label a certain section of population and using it for political gains. On one hand where minorities are being victimised, majority is being labelled on the other. Anybody can put forward his/her own narrative and formulate a community in order to propagate an agenda using these freeware.

The ongoing farmers’ agitation and recent mala fide incident of disrespecting the Red Fort on Republic Day have found their fodder such social media vendetta. The agitation might have united definite parts of Punjab and certain religious groups, but have polarised this most vibrant democracy of the world certainly. Regionalism has overshadowed nationalism and has given voice to supressed emotions on the grounds of religion and sect beliefs. Foreign contributions and polarising agents have reignited the voice of separatism in Punjab and alienated Jats and Sikhs of northern India. Tweet storms and tool kits from both within and outside India are responsible for the downfall of India as nation. Anti-establishment agencies have got their lease of life and have actively participated in the movement, hence polarising the country further on different artificially created grounds. India has already seen the partition on the basis of Hindu – Muslim cannot afford to alienate Sikhs. The ten Gurus are equally worshiped amongst Hindus as much as among Sikhs. There is an overlapping similarity and equality between Jats of Northern India and Sikhs of the Punjab region. 

Noted psychologist and political thinker Vikas Attry who has a hawk -eye view on the agitation wonderfully explains the situation as ‘vent out of supressed emotions of some determined sects and community’. He said, this is no more a farmers’ agitation but an escape of the long vanquish hatred and anger. Divisive sections of community have made it their motto to criticise Modi as they could not still digest the fact of him being Prime Minister yet. These people tend to cross the thin line of criticising him to criticising the country, of criticising him to criticising Hinduism. Attry tried to capture the current situation in his poem Right/Wrong as – “iPhone right, Jio wrong; Walmart Amazon right, Ambani Adani wrong; Progress right, reforms wrong; My reason right, your logic wrong; My data right, your statistics wrong; Democracy right, government wrong; Rights are right, Duties are wrong; Western world right, My country wrong; My stubbornness right, your adamancy wrong.”   

The country needs to get its basics into place and return to the infallible spirit of constitutional democracy. We, the people of India need to place constitution of this country superior than any religion, symbol, flag or belief. Minorities should act exemplary to pacify the nation that they are neither intruding into the rights of majority nor being separatist. Majority population should pour their hearts out to welcome the minorities and give equal space to them to prosper and practice their beliefs by not boosting their supremacy.  

The entire nation including the Sikhs should come forward to condemn the recent Republic Day violence and Muslims of India should be unanimous in condemning any act of violence in Kashmir. The Christian missionaries should refrain themselves from conversion of the vulnerable and downtrodden by offering them alms. Hindus should be seen welcoming all with open arms. We as citizens of this beautiful country should stand up against all the malicious propaganda of political parties and anti-establishment forces. We should not let 1947 repeat and amputee Bharat Mata once more. 

A WhatsApp message aptly describes the situation - If you collect 100 black and 100 red ants and put them in a glass jar, nothing will happen. But if you shake the jar violently and leave it on the table, the ants will start killing each other. Reds believe that blacks are enemy and blacks will think that reds are enemy, while the real enemy is the one who shook the jar. The same is true to the society also. Left vs Right, your religion vs my religion – before we fight each other, we must ask ourselves – “Who shook the jar?”.

- Jagdeep S More, Educationist