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Sunday, December 23, 2018

जाति न पूछो साधु की




जाति न पूछो साधु की

भारतीय राजनीति की निम्नस्तरता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चुनाव जीतने के लिए राजनेताओं ने अब भगवान हनुमान को भी राजनीति के दलदल में उतार दिया|  अभी तक तो राजनेता सिर्फ भगवान राम के सहारे चुनाव लड़ा करते थे, परन्तु अब तो उन्होंने भगवान हनुमान को भी नहीं बक्शा| इसकी शुरुवात राजस्थान विधानसभा के चुनाव से हुई जब उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ ने अलवर के मालपुरा में बी.जे.पी. उम्मीदवार के लिय अपने एक चुनावी भाषण में भगवान हनुमान को दलित, पिछड़ा एवं आदिवासी कह दिया| श्री योगी ने कहा की बजरंगबली हमारी भारतीय परंपरा में ऐसे लोक देवता हैं, जो स्वयं वनवासी हैं, निर्वासी हैं, दलित हैं एवं वंचित हैं| फिर क्या था, एक के बाद एक नेता बिल में से निकलने लगे और बयानबाजी का ताँता लग गया|

हाल ही में उत्तर प्रदेश के विधायक परिषद् के नेता श्री बुक्कल नवाब ने भगवान हनुमान के मुसलमान होने का दावा ठोक दिया| उन्होंने कहा, जिस तरह मुसलमानों में नाम रखे जाते हैं जैसे रहमान, रमजान, फरमान, जीशान, कुरबान, सुलतान आदि वो करीब करीब उन्हीं पर रखे जाते हैं |  उत्तर प्रदेश सरकार के एक कैबिनेट मंत्री लक्ष्मी नारायण चौधरी ने तो भगवान हनुमान की जाती ही बता दी | मंत्री नारायण चौधरी ने तो हनुमान जी को जाट घोषित कर दिया | चौधरी ने कहा, “जो किसी के फटे में पैर डाले वो जाट होता है| जैसे हनुमान ने अपने को किसी और के झमेले में डाल, मुसीबत मोल ली, इस से सिद्ध होता है की उनकी परवर्ती जाटों से मिलती है“|

जहाँ एक ओर भाजपा की ही सांसद सावित्रीबाई फुले ने हनुमान को मनुवादी लोगों का सेवक करार दिया | (मनुवादी से उनका तात्पर्य उच्च वर्ग से था|) तो वहीँ दूसरी ओर, भोपाल, मध्यप्रदेश के समस्गड के जैन मंदिर के मुखिया आचार्य निर्भय सागर महाराज ने तो भगवान हनुमान को जैन बता दिया | उन्होंने हनुमानजी के जैन धर्म अनुयायी होने के तर्क तक दे डाले|

हद तो तब हो गयी जब, भाजपा के निलंबित सांसद श्री कीर्ति आजाद ने देश के बंधन को तोड़ते हुए पवनपुत्र को चीनी बता दिया| उन्होंने कहा की जिस प्रकार चीन में हैन, वैन, जैन होता है उसी प्रकार है हनुमैन यानी हनुमान| बुध्धिजीवियों की इस बहस में सबसे लम्बी छंलाँग लगाई, दिल्ली से भाजपा के सांसद उदितराज ने, जिन्होंने कह दिया कि हनुमान नाम का कोई प्राणी कभी धरती पर जन्मा ही नहीं था| सांसद उदितराज ने कहा की इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण ही नहीं मिलता|

आज की पीढ़ी को भगवान श्री हनुमान को जानना बहुत ज़रुरी है| आज के दौर में जहाँ युवा वर्ग गुस्से में दिखते हनुमान (एंग्री हनु) को अपनी कार के पिछले शीशे पर लगाते शान समझते हैं तो वहीँ दूसरी ओर हनुमान चालीसा का पाठ भी भूलते जा रहे हैं| अपना पूरा जीवन भगवन साधना में लगा देने वाले मनोवैज्ञानिक श्री विकास सिंह अत्री इस विषय पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि हनुमान जी को जानने के लिए सबसे उपयुक्त माध्यम है ‘श्रीरामचरितमानस’| हनुमान जी नि:संदेह वानर रूप में अपनी लीला दर्शाते हैं पर वे बल, बुध्धि एवं ज्ञान के भंडार के रूप में जाने जाते हैं| एक ऐसा प्राणी जो ज्ञान की खान है, पर पूरी मानस में कभी भी अपने को ज्ञानी नहीं कहता, ऐसा व्यक्तित्व होना ही अपनी अपने आप में चुनौती है|   
   
श्रीरामचरितमानस में किष्किन्धाकांड में हनुमान जी का सबसे पहला वर्णन आता है, जब उन्की मुलाकात प्रभु श्रीराम से होती है, गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं – “एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान| पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान||” जब भगवन राम ने हनुमान से उनका परिचय पुछा तो उन्होंने कहा  एक तो मैं यूँ ही मंद हूँ, दुसरे मोहके वश में हूँ, तीसरे हृदय का कुटिल और अज्ञान हूँ, फिर हे दीनबंधु भगवान! (प्रभु) आप ने मुझे भुला दिया?

एक विशिष्ठ रामभक्त जो सदैव बह्रम्चारी रहा हो, जिसने राम नाम समर्पण के सिवा कुछ न किया हो, ऐसा उच्च श्रेणी का राम सेवक भी अपने को मंद एवं कुटिल कह रहा हो , इस से बड़ा दासत्व एवं स्वामिभक्ति का प्रमाण कुछ नहीं हो सकता| श्री अत्री कहते हैं कि वैष्णव परंपरा में एक सूत्र है, “दास, दास, दास अनुदास”, अर्थात, हे इश्वर! मुझे अपने दास के दास का दास ही स्वीकार कर लो| मारुतिनंदन इस परंपरा के सबसे श्रेष्ठ अनुयायी हैं|         
       
मानस में सम्पूर्ण सुंदरकांड, हनुमान जी पर ही आधारित है| श्री जामवंत जी महाराज हनुमान जी को उनका बल बताते हुए कहते हैं कि - “अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं, दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्| सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं, रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि||” अर्थात, अतुल बलके धाम, सोनेके पर्वत (सुमेरु) के समान कान्तियुक्त शरीरवाले, दैत्यरूपी वन [को ध्वंस करने] के लिय अग्रिरूप, ज्ञानियोंमें अग्रगण्य, सम्पूर्ण गुणोंके निधान, वानरों के स्वामी, श्रीरघुनाथजीके प्रिय भक्त पवनपुत्र श्रीहनुमानजीको मैं प्रणाम करता हूँ| हनुमान जी के वानर होने पर भांति-भांति की भ्रांतियां हैं, जिसका जवाब देव्दुत्त पटनायक बखूबी देते हैं, देव्दुत्त कहते हैं कि, हनुमान वानर हैं, अर्थात हनुमानजी वन के नर हैं| वे नगर के नरों से अति विशाल, अति बुध्धिमान एवं अति शक्तिशाली हैं|

हनुमान जी की बुध्धिमात्ता का उदाहरण इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब राम ने उन्हें सीताजी को खोजने के लिए भेजा तो यह नहीं बताया कि रस्ते में क्या क्या बाधाएं आएँगी| उन्होंने हनुमान पर भरोसा किया एवं बाकी सब कुछ उनके विवेक पर छोड़ दिया| तुलसीदास जी लिखते हैं, “जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा| कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा|| सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ| तुरत पवनसुत बत्तीस भयऊ|| जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा| तासु दून कपि रूप देखावा|| सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा| अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा||” इतने बुध्धिमान एवं परम विवेकी श्री हनुमान लेकिन जब लंका में विभीषण जी से मिलते हैं, तो असुर नरेश उनके दर्शन मात्र पर ही कहते हैं कि, “की तुम्ह हरि दासन्ह महं कोई| मोरें ह्रदय प्रीति अति होई|| की तुम्ह रामु दीन अनुरागी| आयहु मोहि करन बड़भागी||” जिस पर भगवान हनुमान ने उत्तर दिया - “कहहु कवन मैं परम कुलीना| कपि चंचल सबहीं बिधि हीना|| प्रात लेइ जो नाम हमारा| तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा||” अपने को कुलीन एवं निम्म कहना, यह बड़भागी काम सिर्फ हनुमान जी ही कर सकते हैं, आज के नेताओं को इस से बहुत कुछ सीखना चाहिए |    
   
भगवन हनुमान को शास्त्र, शिव जी का रूद्र रूप भी बताते हैं| हनुमान जब रावण से मिले तो उसे समझाते हैं कि मेरे कहने से सीता को लौटा दो – “बिनती करऊँ जोरि कर रावन| सुनहु मान तजि मोर सिखावन|| देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी| भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी|| जाकें डर अति काल डेराई| जो सुर असुर चराचर खाई|| तासों बयरु कबहुं नहिं कीजै| मोरे कहें जानकी दीजै||” तीनों लोकों के राजा रावण को, उसी के राज दरबार में उपदेश देने का साहस सिर्फ हनुमान ही कर सकते थे, उनकी आवाज़ में जितना अधिकार है उतनी ही सहजता भी है|

हनुमान की पात्रता का अंदाज़ा उत्तरकांड के इस प्रसंग से बखूबी लगाया जा सकता है – जब भगवान श्रीराम से प्रश्न पूछने की हिम्मत उनके परम स्नेही भाई भरत में भी न हुई तो उनके तीनों भाई बड़ी आशा के साथ श्रीहनुमन के सन्मुख देखने लगते हैं और आशा करते हैं कि वे उनके प्रश्न प्रभु से पूछें – “सनकादिक बिधि लोक सिधाए| भ्रान्तह राम चरन सिर नाए|| पूछत प्रभुहि सकल सकुचाहीं| चितवहिं सब मारुतसुत पाहीं||” इसके बाद यह प्रमाणित हो जाता हैं कि हनुमान की प्रतिष्ठा भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघन से बढ़कर है|

अभी हाल ही में कुछ बुध्धिजीवियों ने हनुमान को आर्यन बताते हुए उनको आर्यन संस्थापक कह डाला, और अपने आप को उनका ही वंशज कह डाला| ऐसे में जे.एन.यू. के प्रसिद्ध प्रोफ़ेसर दीपांकर गुप्ता की थ्योरी याद आती है जिसमें उनका शोध कहता है कि छटी शताब्दी ईसा पूर्व के बाद सारे क्षत्रीय बुद्ध हो गए थे एवं शूद्रों ने क्षत्रियता को अपना लिया| ऐसे में ये बुध्धिजीवी किसके वंशज हैं वे ही भली-भांति जानते होंगे|

हनुमान जी तो घमंड तोड़ने में माहिर हैं, महाभारत काल का प्रसंग तो सबको याद ही होगा जिसमें उन्होंने महाबली भीम का घमंड मात्र इसी बात पर तोड़ दिया की भीम से उनकी पूँछ तक हिलाई न गई| हनुमान जी को कलयुग में अजर अमर होने का वरदान भी प्राप्त है| अगर आज हनुमान जी जहाँ कहीं भी होंगे और वहां से देखते होंगे तो उनको इन छुटपुट नेताओं पर हँसी आ रही होगी |

जिन्होंने सारा जीवन सिर्फ निस्वार्थ भाव से राम भक्ति की ही शिक्षा दी, आज ये पाखंडी नेता उनकी ही जाती ढूढने में लग गए | अब कोई इन्हें ये समझाए कि हनुमान की जाती ही प्रभु श्री राम की जाती है, भगवन और भक्त भला कहाँ अलग हो सकें हैं? संत कबीर दास जी ने ठीक ही कहा है – “जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान, मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान ।"

-       जगदीप सिंह मोर, शिक्षाविद 





               

Tuesday, December 18, 2018

बोर्ड परीक्षा की उलटी गिनती शुरू




बोर्ड परीक्षा की उलटी गिनती शुरू

सी.बी.एस.ई. की कक्षा दसवीं एवं बारहवी की बोर्ड परीक्षा अब निकट आ गयी है, छात्रों ने उलटी गिनती शुरू कर दी  है| परीक्षा में अब केवल दो महीने का समय रह गया है| फरवरी अंत से परीक्षा प्रारंभ हो जायेंगी, सी.बी.एस.ई. के सर्कुलर के अनुसार पहले वोकेशनल विषयों की परीक्षा प्रारंभ होगी फिर मुख्य विषयों के इम्तिहान होंगे|

बोर्ड की परीक्षा, छात्रों के लिए अपने साथ बहुत सारा दवाब ले आती है| उनके ऊपर सफल होने के साथ-साथ मेरिट सूची में अपनी जगह बनाने का दवाब बना रहता है| ज्यादातर विद्यालयों में प्री-बोर्ड परीक्षाओं का दौर चल रहा है, जिसके बाद उन्हें सेल्फ स्टडी के लिए फ्री छोड़ दिया जायेगा| दिसम्बर से फरवरी तक का यह समय बहुत महत्वपूर्ण है| छात्र अगर इस समय में अपनी मेहनत दुगनी कर दें तो वे निसंकोच बोर्ड परीक्षा में बहुत अच्छे अंक प्राप्त करेंगे| विद्यार्थियों के ज़रूरत है योजनाबद्ध तरीके से मेहनत करके इन साठ दिनों का भरपूर फ़ायदा उठाने की| सभी छात्र अपना एक टाइम-टेबल बनाये एवं पाँचों विषयों को बराबर का समय दें| रोज़ कम से कम छः से आठ घंटे ज़रूर पढ़ें| टाइम-टेबल इस प्रकार बना हो जिसमें सात घंटे की नींद का भी पूर्ण प्रावधान हो| छात्र देर रात तक न जग कर सुबह जल्दी उठकर पढने की आदत डालें, सुबह पढ़ा हुआ ज्यादा देर तक याद रहता है| पहले हर विषय का आधा सिलेबस अच्छे से पूरा करें, उसे याद करें, फिर बाकी का सिलेबस पूरा करें| छात्र सिर्फ मौखिक रूप से पढ़ने पर निर्भर न रहें, उसे लिख कर सुनिश्चित करें कि जो उन्होंने पढ़ा है वो अच्छे से तैयार भी हुआ है या नहीं? इस तरह पढने से बच्चों का विषय के प्रति डर भी दूर होगा एवं उनका आत्मविश्वास भी बढ़ेगा|

ये ६० दिन छात्रों के लिए करो या मरो वाली स्थिति है। जो बच्चे इन दिनों का सदुपयोग कर लेंगे वे बेहतर रिजल्ट प्राप्त करेंगे। ज्यादातर छात्र कुधारणा का शिकार हो जाते हैं, एवं या तो वे निराश हो जाते हैं या फिर सिर्फ पी.सी.एम., एकाउंट्स   इकोनॉमिक्स पर ही अपना सारा ध्यान केंद्रित करते हैं। छात्र सबसे अधिक इंग्लिश (भाषा) विषय को नज़रंदाज़ करते हैं। सभी को लगता है कि इंग्लिश तो आसान है आखिरी समय में देख लेंगे। इसी कारण उनकी पर्सेन्टेज कम रह जाती है। अंग्रेजी विषय एक चौथाई अंक समेटे हुए है एवं १२वीं के बाद के लगभग सभी कोर्सेज इसी भाषा में हैं।   

बारहवीं कक्षा के अंग्रेजी के पेपर पैटर्न में सी.बी.एस.ई. ने कुछ बदलाव किये हैं, छात्र हर विषय में सी.बी.एस.ई. के ब्लू प्रिंट के अनुरूप ही तैयारी करें| बाज़ार से सैंपल पेपर एवं विषय सामग्री खरीदते समय ये ज़रूर ध्यान दें की कहीं वह पुरानी संरचना पर आधारित तो नहीं? विद्यार्थी सी.बी.एस.ई. द्वारा प्रकाशित सैंपल पेपर ज़रूर हल करें। यह सी.बी.एस.ई. की वेबसाइट पर मुफ्त उपलप्ध हैं। सैंपल पेपर निर्धारित समय में ही पूरा हल करनें की कोशिश करें,  जिससे अपनी खामियों का अंदाज़ा लगाया जा सकें। सी.बी.एस.ई. की वेबसाइट पर गत वर्षों के प्रश्न पत्र भी मुफ्त उपलप्ध हैं, सभी विद्यार्थी कम से कम पिछले दस वर्षों के प्रश्न पत्र ज़रूर हल करें|    

दसवीं कक्षा के लिय इस बार दूसरी बार बोर्ड की परीक्षा होगी, इस बार उनके सिलेबस में भी सी.बी.एस.ई. ने बदलाव भी किये हैं, पूरी किताब में से ही उनका प्रश्नपत्र बनाया जायेगा| जहाँ कक्षा दसवीं का रिजल्ट छात्रों को ग्यारहवीं में अपने पसंद के विषय चुनने का अवसर प्रदान करेगा वहीँ कक्षा बारहवीं का परिणाम छात्रों के स्वर्णिम भविष्य की नीवं रखेगा| सभी छात्र इस समय पूरे जी जान से परीक्षा की तैयारियों में जुटे हुए हैं| इस आखिरी समय पर बारीकी से की गई पढाई ही मेरिट सूची में बदलाव लाती है| जहाँ कुछ बच्चे दिन भर जाग-जाग कर पढ़ रहे हैं वहीँ कुछ छात्र अपने ऊपर परीक्षा का दबाव भी महसूस कर रहे हैं| छात्रों के ऊपर दोस्तों, परिवार, विद्यालय एवं समाज का दवाब हमेशा रहता है जिस कारण कई बार वे घबराहट भी महसूस करने लग जाते हैं| प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी में भी बच्चों से अपील की है की वो इन परीक्षाओं को एक उत्सव के रूप में स्वीकार करें| जिस प्रकार हम त्यौहार मानते हैं उसी तरह परीक्षा भी त्यौहार ही है, तो क्यूँ ना इनकी तैयारी भी धूम धाम से की जाये| छात्र परीक्षा के परिणाम की बिल्कुल भी चिंता ना करें बल्कि तैयारी में अपना शत प्रतिशत दें| 

कुछ समय में लगभग सभी विद्यालय बोर्ड की कक्षाओं के छात्रों को तैयारी के लिए अवकाश दे देंगे| बच्चे पूरा समय घर पर ही रह कर पढाई कर रहे होंगे, ऐसे में अभिवावकों का उत्तरदायित्व और भी ज्यादा बढ़ जाता है| अभिवावकगण बच्चों के ऊपर नकारात्मक दबाव बनाने से बचें, उनकी तुलना दुसरे बच्चों से बिल्कुल ना करें| मौसमी बदलाव से भी छात्र अपने को बचाएं, परीक्षा के दिनों में बीमार पड़ना परिणाम पर असर दिखा सकता हैं| ‘कर्म करो फल की इच्छा मत करो’ इस समय गीता का यह ज्ञान ही छात्रों की हर दुविधा का सटीक उत्तर है|   
             
-       जगदीप सिंह मोर, सी.बी.एस.ई. मास्टर ट्रेनर एवं शिक्षाविद

Shiksha Mein Ho Swarnprabhas








Wednesday, September 5, 2018

(Un)Happy Teachers’ Day



(Un)Happy Teachers’ Day

Had Dr. Radhakrishnan been alive, he would not have celebrated his birthday today. He’d have been aghast seeing the plight of teachers. Wishing all the teachers of the country a ‘Not so happy teachers’ day’. The pious occupation of being a teacher is witnessing its record low. Of late, it is the teachers who are at the receiving end.

The recent incident of a woman school teacher being beheaded by a class tenth student in Jharkhand came as a shocker to the entire teaching community. He not only beheaded the teacher but ran around the village with chopped head in his hand for hours together. It is the most heinous crime ever done to malign the sanctity of the pious institution of teaching learning. From last some months teaching institutions particularly schools have been in news for all the wrong reasons. A teacher is subjected to everything from abuses to stabbing to taking bullet shots of his pupils.

Despite being the most vulnerable and victims, the authorities put the blame on teachers themselves. This year many private schools and National Independent Schools Alliance (NISA) have decided to observe a black day on 5 September to protest against the arrest of Support Staff, Principals and Schools Management of Private Schools. There are numerous cases where the schools have become soft targets for the parents and government agencies to pass the buck. The private school association of Uttar Pradesh has decided to show their protest for the day by tying black strips on their hands. This is probably the first time in independent India where teachers in such large numbers are showing their objections openly. 

The parent-teacher solidarity is at its all-time low. Of late, it has become a norm to blame school and teachers for every wrong doings of a child. The parents are not willing to take responsibility of their neglect. The entire teaching fraternity is living in a constant threat of being blamed for none of their actions. Any misconduct of the child is bound to fall on the school and teachers. This growing culture of rebuttal from parents has kept the schools on backfoot. It has been seen that, the schools are no longer enjoying a healthy parent teacher association. Gaining a written consent for everything as low as taking them to laboratories and music & dance classes from parents have become a standard operational procedure for schools these days which was otherwise considered a part of their normal routine. The element of trust has almost wiped out from the teaching institutions. What are we teaching to our kids subconsciously? We are forgetting the fact that we are creating future humans without emotions by these actions of ours. 

In today’s education system the entire focus is on the kids, nobody is paying any attention to the wellbeing of teachers. The Human Resource policies for teachers are weakest amongst equivalent industries. The infrastructural hurdles in the government schools and salary constraints of private schools are ever existing. While there are still a significant number of govt. schools which lack basic facilities like drinking water and toilet, on the other hand there are private schools that didn’t even offer a chair to teachers in classroom. Both private and govt. schools (excluding a few elite schools) face staff crunch and the existing staff has to support additional periods and classes. The private schools running across the country has no fixed remuneration policy employing teachers in as low as two thousand rupees per month. With these challenges to face every day, a teacher is the most abandon employee in the white-collar segment.

Almost all the laws are child centric and a teacher is left with no option but to prove his own innocence. The latest example of a 92-year-old retired teacher being booked under false charges of POCSO is an eye-opener. The entire repute earned after decades of service to the nation is malignified overnight. It is anticipated that these laws might also met their fate like the Dowry Prohibition Act which is widely misused. 

The need of the hour is to constitute an autonomous body under the constitution to uphold and safeguard the rights of millions of teachers who are always regarded as nation builders. There should be a uniform wage system for the teachers so that the sanctity of the institution is preserved. The occupation of being a teacher should be made open to all the intellectuals across domains so that the quality of education is improved. Affiliation laws should also keep a vigil on ‘hire and fire’ policy of school owners. The government should implement the recommendations of Subramanian Committee.  An Indian Education Service (IES) should be established as an all India service with officers being on permanent settlement to the state governments but with the cadre controlling authority vesting with the Human Resource Development (HRD) ministry. The outlay on education should be raised to at least 6% of GDP without further loss of time. Compulsory licensing or certification for teachers in government and private schools should be made mandatory, with provision for renewal every 10 years based on independent external testing.

If the glory of teachers kept on deteriorating like this forever, the time is not far away when we will see meaningless institutions producing human beings without any intellect, emotion and vision. Dr. Radhakrishnan has aptly said, “It is not God that is worshipped but the authority that claims to speak in His name. Sin becomes disobedience to authority not violation of integrity.” 
     
Jagdeep S. More, Educationalist 

शिक्षक की व्यथा


शिक्षक की व्यथा  

‘शिक्षा’ शब्द सामने आते ही हमारे ज़हन में अपने प्रिय शिक्षक की तस्वीर बन उठती है। सिर्फ़ तस्वीर ही नहीं उस शिक्षक के साथ बिताए गए सुनहेरे पल भी दिल-ओ-दिमाग़ में ज़िंदा हो उठते हैं। युग युगांतरों से शिष्य अपने हिस्से का सुख छोड़ कर गुरु सेवा को ही अपना अग्रिम धर्म समझता था। गुरु का स्थान तो भगवान से भी ऊपर बताया गया है। यही कारण है कि शिक्षक दिवस का हमारे देश में बहुत महत्व है।    

परंतु आज के दौर में गुरूयों को काँटों भरे रास्ते पर सफ़र करना पड़ रहा है। आज बदले हुए ज़माने में शिष्य सम्पूर्ण सुख ले रहा है वरन शिक्षक निंदा का पात्र बना हुआ है। हाल ही में हुई एक घटना ने सम्पूर्ण शिक्षा जगत को झंकझोर कर रख दिया। जमशेदपुर के पास एक गाँव के स्कूल में दसवीं के एक छात्र ने अपनी गणित की शिक्षिका के ऊपर स्कूल परिसर में ही चाक़ू से वार किया, उनका क़त्ल किया एवं शिक्षिका की गर्दन काट, उनका सर हाथ में ले, पूरे गाँव में घुमाया। इससे ज़्यादा विभत्स्यात्मक घटना सम्पूर्ण शिक्षा जगत के लिए कुछ और नहीं हो सकती। विस्मय यह रहा कि मीडिया ने इस घटना को ज़्यादा तवज्जो नहीं दी।

पिछला एक साल ऐसी अनेकों घटनाओं से भरा रहा जहाँ शिक्षक कभी अपने ही शिष्यों द्वारा बेज़्ज़त किए गए, कभी उनके चाकुओं का वार सहा तो कभी उनकी गोलियों का शिकार हुए। स्कूली शिक्षा प्रणाली अपने निम्न स्तर पर पहुँच गयी है। सरकारी व प्राइवट दोनों स्कूलों में शिक्षक का हाल बुरा ही है। जहाँ एक ओर सरकारी विद्यालयों में लचर बुनियादी ढाँचा शिक्षकों के लिए चुनौती है तो वहीं निजी विद्यालयों में भगवान स्वरूप शिक्षकों को कुर्सी तक मोहिया नहीं है। स्कूलों में पर्याप्त शिक्षकों की निरंतर क़मी बनी रहती है, तो मौजूदा शिक्षक ही दिन भर खड़े रह कर शिक्षा की गिरती बुनियाद अपने कंधों पर उठाए हुए हैं।

यह कुछ ऐसा ही है जैसे आप फ़िल्म देखने एक बढ़िया सिनेमा हॉल में गए। प्रधानता फ़िल्म की ही है पर फ़िल्म की गुणवत्ता अब सिर्फ़ अभिनेता या अभिनय तक सीमित नहीं है अपितु सिनेमा हॉल में बैठने वाली वो आराम दायक कुर्सी, डिजिटल डोल्बी साउंड सिस्टम, परदे के उजले रंग, हॉल के अंदर का तापमान, कैंटीन का ज़ायक़ेदार खाना सब साथ मिलकर एक अनूठे आनंद दायक अनुभव को जन्म देते हैं। उपरोक्त कही कोई भी चीज़ निम्न या महान नहीं है बल्कि सबकी अपनी अलग व आधारभूत महत्वता है, जो एक सम्पूर्ण आनंदायी अनुभव की जन्मदात्रि हैं। ये अनुभव ही हमें दोबारा सिनेमा हॉल खींच कर ले जाता है। अगर आपसे कहा जाए कि सब कुछ वैसा ही रहेगा बस आपको बैठने के लिए कुर्सी नहीं मिलेगी तो आप ही बताओ क्या आपका अनुभव यादगार रहेगा? कल्पना कीजिए की उसी सिनेमा हॉल की छत टपक रही है, या फिर पंखा/ए.सी.नहीं चल रहे, और जुलाई की उमस भारी गरमी में आप फ़िल्म देख रहे हैं। जब आप बाहर निकलें तो हर कोई आपसे पूछ रहा हो कि फ़िल्म कैसी लगी? अब, जब आप चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे होंगे की बैठने को कुर्सी नहीं थी, या फिर गरमी बहुत थी तो आपसे कहा जाए ये सब छोड़ो यह बताओ फ़िल्म कैसी लगी, आख़िरकार प्रधानता तो फ़िल्म की ही थी ना? कुछ ऐसा ही हाल है आज के शिक्षा क्षेत्र का है। एक तरफ़ शिक्षकों से यह उम्मीद की जाती है कि वह शिक्षा की गुणवत्ता बनाए रखे वहीं दूसरी तरफ़ उसकी तकलीफ़ कोई सुनना नहीं चाहता। जहाँ सरकारी स्कूलों में बैठने के लिए बेंच नहीं हैं, पंखे नहीं हैं, शौचालय नहीं है, तो निजी स्कूलों में शिक्षकों के वेतन का कोई मापदंड नहीं है। संचालक अपने मन-माफ़िक़, शिक्षकों को ‘हायर एंड फ़ायर’ पॉलिसी के तहत अपनाते - निकालते रहते हैं। 

आज शिक्षक – अभिभावक समन्वय भी अपने निम्न स्तर पर है। अभिभावक स्कूली शिक्षक को निम्न वर्ग का कर्मचारी ही समझने में आनंद लेता है। बच्चे भी इसी बात का बख़ूबी दुरुपयोग कर रहे हैं। हाल ही में दिल्ली के एक प्रतिष्ठित निजी स्कूल के कक्षा नवमीं के दो छात्र स्कूल के बाद घर जाने के बजाए, मौज-मस्ती करने के लिए एक क्लब में चले गए। अभिभावकों ने स्कूल का घेराव किया, शिक्षकों के ख़िलाफ़ अभद्र भाषा का उपयोग किया, एवं स्कूल को इसका पूर्ण ज़िम्मेवार ठहराया। शाम को जब दोनों बच्चे वापिस आ गए, तब जा के दूध का दूध और पानी का पानी हुआ, परंतु तब भी उनके ख़िलाफ़ कोई ठोस कार्यवाही नहीं की, जबकि क्लास टीचर को उच्च रक्तचाप के चलते हस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। हरियाणा के एक जिले में भी अभी हाल ही में कुछ ऐसा हाई हुआ, बारहवीं कक्षा का एक बिगड़ैल बच्चा स्कूल बस से उतरा और घर जाने के बजाए, विडीओ बनाने के लिए रेल्वे स्टेशन चला गया। दुर्भाग्यवश वो रेल की चपेट में आ गया, बस फिर क्या था – घर वालों ने प्रिन्सिपल का घिराव किया एवं ज़ोर-शोर से स्कूल के ख़िलाफ़ सोशल मीडिया पर हल्ला बोल दिया। अभिभावक अपनी ज़िम्मेवारी से पल्ला झाड़ लेते हैं एवं स्कूल को ही दोषी क़रार दे देते हैं। आज शिक्षक एक डर के माहौल में जी रहा है, ना जाने कौन सी बात पर छात्र क्षुब्ध हो जाए और उसकी फ़ज़ीहत हो जाए। 
                       
पोकसो एवं जे.जे.ऐक्ट भी इसी कड़ी का हिस्सा हैं, अनेकों झूटे केसों में शिक्षकों को फँसाया जाना आम हो रहा है। महीने भर पहले ऐसा ही केस सामने आया, जब एक 92वर्ष के शिक्षक पर झूटे आरोप के तहत पोकसो का केस दर्ज हुआ। शिक्षक के जीवन भर की कमायी हुई प्रतिष्ठा ख़ाक हो गयी। डर है कि कहीं इन क़ानूनों का हाल भी दहेज के क़ानून जैसा ना हो जाए, जिनका उपयोग से ज़्यादा दुरुपयोग होना शुरू हो जाए। देश भर में सारे क़ानून एक-तरफ़ा होते जा रहे हैं, शिक्षकों के लिए एक भी क़ानून नहीं है।   

पूरा साल नेता, सरकार, अधिकारी, स्कूली संचालक, अभिभावक एवं बुध्धिजीवि ‘हर बच्चा ख़ास है’ का राग अलापते हैं, और कहते हैं की बच्चे में कोई ना कोई कौशल तो होगा, वो आगे जाकर उसे ही अपनी आजीविका का साधन बना लेगा। परंतु परीक्षा परिणाम के समय उनका दोगला रवैय्या सामने आ जाता है, ऐसे में अगर वह छात्र परीक्षा में अनुतीर्ण हो जाए तो बेचारे शिक्षक की तो ख़ैर नहीं। उसे महज़ एक वेतन भोगी होने की संज्ञा दे दी जाती है। समाज एक शिक्षक से यह उम्मीद तो लगा लेता है की पूरे राष्ट्र का बोझ उसके कंधों पर है परंतु वही समाज यह भूल जाता है कि जिस उच्चतम सम्मान का वह शिक्षक अधिकारी है वह उसे मिल भी रहा है या नहीं? एक युवक के शिक्षक होने पर यही समाज उसको दूसरे व्यवसायों के मुक़ाबले हेय दृष्टि के देखता है। जब शिक्षक के पास आपने कोई साधन छोड़ा ही नहीं तो वो बेचारा और करे भी तो क्या? 

प्राचीन गुरुओं से आज के शिक्षक की तुलना करना एक आम बात है, इतिहास के ज्ञान के आभाव में, आज कल के नागरिक टेलिविज़न पर गुरुओं के वस्त्र देख कर उनके दारिद्रय का परिचय लगा लेते हैं, परंतु वे यह भूल जाते हैं कि, गुरुओं को राजाओं से यह अनुमति प्राप्त हुआ करती थी की वे गुरुकुल के समीपवर्ती गाँवों से ख़ुद कर लेकर गुरुकुल का रखरखाव करें। गुरु हीन नहीं अपितु समृद्ध होते थे जिनके जीवन से लोग प्रेरणा लिया करते थे। वहीं आज का गुरु कहीं कहीं तो महज़ दो हज़ार का वेतन पा अपनी सेवाएँ मोहिया करवा रहा है।                 

स्कूली शिक्षकों की वर्क्शाप, ट्रेनिंग या मीटिंगों को देखा जाए तो सिर्फ़ यह निकल कर आता है की, एक शिक्षक कितना दीन-हीन प्राणी बनकर रह गया है, जिसे अंततः सिर्फ़ हाथ जोड़े ही खड़े रहना है। आज का शिक्षक सिर्फ़ एक ‘सॉफ़्ट-टार्गेट’ से ज़्यादा कुछ नहीं है, जिसे निरंतर यह भय सताता रहता है कि उसकी कौन सी बात को तोड़-मरोड़ के पेश कर दिया जाएगा और वह अट्ठहास का पात्र बन जाएगा। ऐसे में उसे अपनी नौकरी भी बचानी है एवं अपने कर्तव्य को भी निभाना है।                                                                         
                                            
आज समय की यह माँग है की सरकार इस व्यवसाय को अपनी खोई हुई बुलंदियों तक ले जाए। जल्द से जल्द एक ऐसे शिक्षक मंडल का निर्माण किया जाए जिसमें सभी शिक्षकों के हित हो बचाये रखने के पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हों। अगर जल्दी ही इस व्यवसाय को बचाया नहीं गया तो इसका हाल भी उस प्राचीन भारतीय संस्कृति जैसा हो जाएगा जिसके ज़िक्र पर हम गर्व तो करेंगे पर कभी उसे दोबारा पा ना सकेंगे। ग़ौरतलब रहे की जब-जब शिक्षकों का पतन हुआ है तब-तब पूरे समाज को रसातल का मुख देखना पड़ा है।   

-    जगदीप सिंह मोर, शिक्षाविद 

श्रद्धा का महासावन


श्रवण मास वर्ष का सबसे पवित्र महीना माना जाता है। संतजन कहते हैं की सावन महीना और भोलेनाथ का संगम उसी तरह है जैसे जल में शीतलता, अग्नि में दाहकता, सूर्य में ताप, चंद्रमा में शीतलता, पुष्प में गंध एवं दुग्ध में घृत। श्रवण मास में सर्वत्र शिवमय हो जाता है, शिव ही परम सत्य हैं, शिव ही अदियोगि हैं एवं शिव ही महादेव हैं। वेदव्यास जी ने स्वयं कहा की - ‘हे प्रभो! आप कानों के बिना सुनते हैं, नाक के बिना सूँघते हैं, बिना पैर के दूर से आते हैं, बिना आँख के देखते हैं और बिना जिव्हा के रस ग्रहण करते हैं, अंत: आपको भलीभाँति कौन जान सकता है?’ 

मेरी दादी सावन के महीने में शिवमहापुराण का पाठ किया करती थी। वे प्रायः कहती थी कि शिवमहापुराण में लिखा गया है, ‘हे महादेव! आपको न साक्षात् वेद, न विष्णु, न सर्वसृष्टा ब्रह्मा, न योगिंद्र और न तो इंद्रादि देवगण भी जान सकते हैं, केवल भक्त ही आपको जान पाता है।‘ यही कारण है की काँवड़रियों को देवतुल्य माना गया है। मेरे बाल्यकाल से अब तक कांवड़ लाने के तरीक़े में बहुत बदलाव आ गया है। जहाँ पहले केवल पैदल कांवड यात्रा करने वाले ही हुआ करते थे, पग-पग भरते काँवड़रिए बम-बम भोले का नाम-जप करते हुए अपनी श्रद्धा यात्रा पूरी किया करते थे, वहीं आज के दौर में डाक-काँवड़, टाटा 407 में डी॰जे॰, मोटरसाइकल एवं कार में काँवड़ लाने का चलन ख़ूब धूम मचाए हुए है। पहले जिस रास्ते से काँवड़रिए जाया करते थे, हम उनकी चरणरज अपने माथे पर लगाया करते थे। पैदल काँवड़ लाना सबसे बड़ी तपस्या है एवं शिव के प्रति अपार श्रद्धा का प्रतीक है। दादी कहती थी कि, जिस घर का सदस्य काँवड़ लाने जाता है, उसके पूरे घर को एक निश्चित अनुशासन में रहना होता है। शिव के प्रति इतनी आपर श्रद्धा व समर्पण ही हिन्दू धर्म की शक्ति है।   

परंतु आज के इस आधुनिक युग में काँवड़ यात्रा के मायने बहुत बदल गए हैं, काँवड़ लाना इतना सरल हो गया है की युवावर्ग इसे मनोरंजन स्वरूप ले रहा है, अक्सर यह मनोरंजन हुड़दंग का रूप भी ले लेता है। वो भगवान शिव की भक्ति में लगाए गए बम-बम के नारे आज डी॰जे॰ की ऊँची आवाज के सामने लुप्त होती दिखाई दे रही है। शिव की स्तुति के ऊपर नशा भी हावी हो रहा है। अगर हम आज नहीं चेतें तो आने वाली पीढ़ी के लिए भक्ति की नयी परिभाषा ही गठित करनी होगी। 

- जगदीप सिंह मोर

Sunday, July 22, 2018

Mainstreaming Health and Physical Education

The Statesman (21 July 2018)

                                                        The Millennium Post (21 July 2018)



Mainstreaming Health and Physical Education

The Central Board of Secondary Education (CBSE) has taken a path-breaking decision for millions of school children by making it mandatory for schools to allocate at least one period daily for Health and Physical Education (HPE) from the current session. The guidelines issued henceforth show the collaboration of HRD Ministry with Sports ministry aiming at producing medal winning sportspersons in the future. It is a welcome step for school students as it will provide them a platform to nurture their talent.

The HPE manual issued by the Board integrates games, yoga, physical exercises, life-skills and value education for holistic development of a child. The HPE component is divided into four strands namely Games/Sports, Health & Fitness, Social Empowerment through Work Education and Action (SEWA) and Health & Activity card records. Each strand is allocated fixed periods and marks. The guidelines further states that there will be no theory classes as a part of this format. Every child is free to choose the games of his/her choice under this system.  The manual designates the class teacher responsible for ensuring that each child participates in all strands and will facilitate all of them in the absence of sports teacher. It is mandatory for the schools to implement HPE and upload a report of work accomplished across the strands of secondary and senior secondary grades for enabling students to sit for the Board examination. This obligatory clause has come as a nightmare for the schools. 
   
The HPE circular issued by the Board came less like guidelines but more like a fatwa. It seems the manual has been borrowed from some foreign agency like the infamous failed Continuous and Comprehensive Evaluation (CCE) system of the board. The board has not even taken the infrastructure hurdles of schools into consideration but pronounced a mammoth task to be undertaken.  There are numerous schools across India affiliated in the seventies and eighties which have either moderate size playgrounds or no playgrounds at all. Considering a school having four sections each of forty students from class ninth to twelfth, the allocation of time table is a daunting task. To accommodate over hundred students in a playground at a time and insuring their safety is in itself challenging. The HPE format gives students the liberty to choose the game/sport of their own choice. It is beyond comprehension how a teacher will manage a class of over four dozen students choosing different games in one period. The board executives have not even bothered to look at these issues before issuing the injunction.

The onus of responsibility lies on the class teacher is itself making the mockery of the orders. At secondary and senior secondary levels, a class teacher is a specialist of her/his subject and not a physical education teacher. An economics or physics teacher in her late fifties guiding young pupils the intricacies of playing basket ball is enough to imagine the ridicule nature of the format.  Policy makers are of the opinion that it is desirable that every teacher should know the basics of the games. It is same like an English language teacher teaching mathematics when the later subject teacher is absent in the pretext that every teacher should know basic maths.

The component SEWA which is Social Empowerment through Work Education and Action is again proving an embarrassment for the schools. Of late, the schools have become too cautious to take students out for excursions and other community services due to frequent occurrences of untoward incidences during the past one year. On one hand the government has failed to formulate a sound education policy and has failed miserably to enact even a single law for the welfare of teachers while on the other hand it wants them to perform magical spells to change the education system of the country overnight. SEWA also involves maintenance of huge records, which will hamper the already overburdened schedule of the students.   

In our country, board examinations and results are too competitive and stressful for a child that it gives little scope for other leisure within the prevalent education framework. The policy of mainstreaming HPE is good in intension but is hard to implement. The fear is it should not meet its fate like CCE where the records were bogusly kept by the schools without delivering its effective end-product.  Majority of the schools in our country are primarily academic oriented and sports facilities merely complement the scholastics. The call of the hour is to provide an impetus to our sports budget and the education system needs an overhauling where more and more sports schools should be setup and sports should be treated at-par with the scholastic subjects by ensuring lifelong livelihood commitment to the sportspersons. Government should understand the fact that if we are so serious about increasing our Olympics medal tally, we should improve on providing the sports infrastructure to our kids on the lines of China rather than giving them one extra free period.     
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          Jagdeep S. More, Educationist                           

Tuesday, June 26, 2018

नवीन शहर या लुहावना स्वप्न



नवीन शहर या लुहावना स्वप्न

हरियाणा प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री मनोहरलाल खट्टर ने गत शनिवार एक एतिहासिक घोषणा का एलान किया । मुख्यमंत्री ने प्रदेश में गुरूग्राम के समीप एक नवीन शहर बनाने की घोषणा करी । इस नवीन शहर को लगभग ५०,००० हेक्टेर में बसाया जाएगा। यह शहर चंडीगढ़ से ४ गुना बड़ा एवं गुरूग्राम के दो-तिहाई हिस्से के बराबर होगा। चंडीगढ़ का क्षेत्रफल ११,४०० हेक्टेर व ग़ुरुग्राम ७३,२०० हेक्टेर में बसे शहर हैं। इस नए शहर को पब्लिक-प्राइवट पार्ट्नर्शिप (पी॰पी॰पी॰) मॉडल के तहत तैयार किया जाएगा। हरियाणा राज्य औद्योगिक एवं बुनियादी ढाँचा विकास निगम (एच॰एस॰आइ॰आइ॰डी॰सी) को इसके मास्टर प्लान तैयार करने की ज़िम्मेवारी सौंपी गयी है, उन्होंने यह बताया कि यह नूतन शहर, उत्तर में ग़ुरुग्राम से लगते हुए पटौदी-मनेसर, उत्तर-पूर्व में अरावली की पहाड़ियों, पश्चिम में राष्ट्रीय राज्यमार्ग ८ तथा दक्षिण में कृषिभूमि ज़मीन पर बसाया जाएगा। मास्टर प्लान बन ने के पश्चात इसके टेंडर जारी किए जाएँगे। यह शहर अत्याधुनिक बुनियादी ढाँचे पर बनाया जाएगा, शहर में मेट्रो, रेल एवं सड़क परिवहन के सभी साधन मौजूद होंगे। 

हरियाणा सरकार ने जिस सहजता के साथ इस परियोजना की उद्घोषणा की है उससे तो ऐसा लगता है की, या तो मानो सरकार के पास कोई जादू की छड़ी है जिसे घुमाते ही यह परियोजना पूरी हो जाएगी या फिर स्वयं विश्वकर्मा देव इन्हें आशीर्वाद दे गए हैं की अगले चुनाव से पहले नया शहर अपना मूलस्वरूप ले ही लेगा। 

इस नए शहर को बसाने का उद्देश्य भी समझ से परे है, या तो श्री खट्टर दिल्ली का बोझ हल्का करने का बीड़ा उठा चुके हैं या फिर हरियाणा प्रदेश में एक नए इंद्र्प्रस्थ बसाने का सपना देख बैठे हैं। सरकार शायद यह भूल गयी की एक नया शहर बसाने में कम से कम २० वर्षों का समय लगता है। नॉएडा एवं गुरुग्राम इसका ज्वलंत उदाहरण हैं, आज तक ये शहर पूर्णतः विकसित नहीं हो पाए हैं। ऐसा लगता है मानो २०१६ के बजट में घोषित स्मार्ट सिटी परियोजना के १०० करोड़ रुपए हरियाणा के खाते में जमा हो गए हैं। आज जहाँ दो एकड़ में बने हस्पताल या मॉल बनाने में ३०० करोड़ रूपए की लागत आती है, वहीं पचास हज़ार हेक्टेर में बनने वाले शहर में कितनी लागत आएगी इसका अंदाज़ा भी सरकार ने लगाया है या नहीं? और ये पैसा आएगा कहाँ से? वहीं क्या यह प्रदेश की जनता की माँग है या फिर सिर्फ़ एक सुहावना स्वप्न?

हरियाणा प्रदेश अपनी कृषि, पशुपालन एवं ज़मीन से जुड़े होने के लिए युग-युगांतर से प्रसिद्ध है, क्या इस परियोजना का मक़सद किसानों को अपनी ज़मीन से अलग करना तो नहीं है? सरकार यह भी स्पष्ट करे की कहीं आने वाले सालों में हरियाणा, चंडीगढ़ को पूर्णताः पंजाब को देने का मन तो नहीं बना रहा? वरना अचानक से एक नया शहर बनाने का मक़सद क्या है? यह परियोजना तो सरकार के चुनावी घोषणापत्र में भी नहीं थी, तो अचानक से इसका उद्घोष किस कारण किया जा रहा है, क्या घोषणापत्र में किए वादे शत प्रतिशत पूरे हो गए हैं?

हरियाणा सरकार के जैसे ही एक नया शहर बनाने की पहल आज से एक दशक पहले महाराष्ट्र में पुणे के निकट ‘लवासा लेक सिटी’ बसाने में की गयी थी, पर आज इसका क्या हाल है? क्या हरियाणा सरकार ने इसकी समीक्षा की है? अरबों रूपए लगाने के बाद आज ‘लवासा लेक सिटी’ एक आलीशान खंडर के सिवा कुछ नहीं है। बैंकों के लाखों करोड़ रुपय ऐन॰पी॰ए॰ हो गए और हासिल कुछ भी नहीं हुआ। ऐसी परियोजनाओं का पर्यावरण पर क्या असर होता है, इसकी भी पड़ताल ज़रूरी है। अरावली पहाड़ी एवं वन क्षेत्र, पर्यावरण के नज़रिए से बहुत संवेदनशील जगह है, क्या एक नए शहर का बोझ ये उठा पाएगी? लाखों पेड़ काटे जाएँगे, हज़ारों बेज़ुबान जानवर बेघर हो जाएँगे, कितने ही दुर्लभ जीव तो इस दुनिया से लुप्त ही हो जाएँगे - इनका दोष अपने सिर कौन लेगा? एक नए शहर की ज़रूरत का पानी कहाँ से लाया जाएगा, जबकि दक्षिणी हरियाणा प्रदेश पहले से ही सूखे की मार झेल रहा है। २००९ में प्रकाशित हरियाणा सरकार की अपनी रिपोर्ट कहती है की ग़ुरुग्राम में पानी का बड़ा संकट है, यहाँ ज़मीनी पानी भी उपलब्ध नहीं है, गुरुग्राम में पानी का दोहन २३२% है जो की अरक्षणीय है। पंजाब ने पानी देने से पहले ही साफ़ इंकार किया हुआ है, तो क्या लुप्त सरस्वती नदी ख़ुद-ब-ख़ुद नवीन सिटी में अवतरित हो जाएँगी? इतने बड़े शहर का कूड़ा कहाँ एवं किस प्रकार मैनेज किया जाएगा, इसका उत्तर सरकार के पास है या नहीं? नए शहर में बाहर से आने वालों का प्रवास बढ़ेगा, जो नयी चुनौतियों को दावत देगा। इनका समाधान किस प्रकार किया जाएगा, इसका रोड्मैप क्या सरकार के पास है?

हरियाणा सरकार को चाहिए की वो ऐसे सपने ना देखे जो प्रदेश हित में ना हों, अपितु महात्मा गांधी के बताए मॉडल को अपनाए। हर एक ग्राम सवलंबि बने, सारी ज़रूरतों का सामान गाँव में ही मोहिया किया जाए। शहरों की ज़रूरत ही ना हो, सत्ता, संसाधन एवं ज़रूरतों का विकेंद्रीकरण किया जाना अनिवार्य है। द्वितीय पंचवर्षीय योजना में भारत यह ग़लती कर चुका है की अपनी प्रभुता वाले कृषि क्षेत्र को छोड़ कर हम दूर के सपने संजोने लगे थे, जिसका परिणाम आने वाले कई दशकों तक हमें भुगतना पड़ा। प्रदेश सरकार भी वही ग़लती दोहराने जा रही है, हमें ज़रूरत है गाँव कि समृद्धि की ना की शहर रूपी काँक्रीट के जंगलों की।      प्रदेश सरकार ग़ुरुग्राम, फ़रीदाबाद जैसे महानगरों की ही ज़रूरत पूरी कर पाने में असमर्थ है, तो नए शहर का स्वपन क्यूँ देख रही है? अभी मॉन्सून के आ जाने पर कैसे इन नगरों की कलाई खुलती है, यह मात्र चंद दिन ही दूर है। सरकार को चाहिए की वह अपने मौजूदा नगरों को ही स्मार्ट बनाए ना की कुछ नया करने की चाहत में अपनी फजिहियत करवा बैठे? हरियाणा की पहचान देसी हुक्के से है, ना की फ़्लेवर हुक्के से। प्रदेश सरकार फ़्लेवर हुक्के की चकाचोंध में ना आए बल्कि देसी हुक्के की शान को विश्वविख्यात बनाए। 

-   जगदीप सिंह मोर, शिक्षाविद