बाल दिवस की चेतावनी: मासूमियत के बीच उभरती हिंसा की छाया
बाल दिवस की चेतावनी:
मासूमियत के बीच उभरती हिंसा की छाया
बाल दिवस का उद्देश्य होता है
बच्चों की सुरक्षा, उनकी सही परवरिश, शिक्षा, स्वास्थ्य और उनके समग्र जीवन को संवेदनशील तरीके से देखा जाना। बच्चों
में सिर्फ पढ़ाई-लिखाई ही नहीं बल्कि नैतिकता, सामाजिक
योग्यता और साझा जिम्मेदारी की भावना विकसित करना भी उतना ही आवश्यक है। आज के युग
में जहाँ तकनीक, सोशल-मीडिया, प्रतिस्पर्धा
और पढ़ाई का दबाव बच्चों पर लगातार बढ़ रहा है, वहाँ हमें यह
देखना होगा कि बच्चे सिर्फ उचित देखभाल से नहीं बल्कि एक सुरक्षित और सकारात्मक
वातावरण में उभर रहें हों।
हाल ही में आयी ओ.टी.टी. सीरीज
एडोलिसेंस ने बहुत सुर्खियां बटोरी। यह ब्रिटेन के एक तेरह वर्षीय किशोर की कहानी
पर आधारित थी, किशोर की नाजुक ज़िंदगी में क्या चल रहा था-व्यस्त माँ-बाप को इसका बिल्कुल
भी अंदाजा नहीं होता। अंततः किशोर एक भयावह अपराध को अंजाम दे देता है और उसको
पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया जाता है। माँ बाप के लिए मानो पैरों तले जमीन ही
खिसक जाती है। जिसने भी इस फिल्म को देखा वह भौचक्का रह गया, उस समय सबने माना की यह सब पश्चिमी जगत में होता है,
हमारे बच्चे ऐसे नहीं है। परंतु अब यह तिलिस्म भी टूट रहा है एवं किशोरावस्था की
इन चुनौतियों को भारतीय बच्चों में भी देखा जा रहा है। अभिभावकों की अपने
कार्यक्षेत्र की व्यवस्थाएँ उनको बच्चों से दूर कर रही हैं एवं बच्चों की दुनिया
में क्या चल रहा है इसका उनको लेशमात्र भी ज्ञान नहीं है। बच्चों का सारा समय उनके
मोबाइल फोन के साथ बीत रहा है।
आज हम यह देख रहे हैं कि बच्चे
में हिंसक प्रवृत्तियाँ भी उदय हो रही हैं — स्कूल में चाकू लेकर जाना, साथी-छात्र पर
हमला करना, बंदूक का प्रयोग करना। उदाहरण स्वरूप: दिल्ली के
पहाड़गंज में एक 15 वर्षीय छात्र चाकू लगने की स्थिति में खुद
पुलिस स्टेशन पहुँच गया। पुलिस ने उस पर चाकू मार कर हमला करने वाले तीन नाबालिगों
को गिरफ्तार किया। गुरुग्राम में एक और बेहद चिंताजनक मामला सामने आया जहां एक 17
वर्षीय छात्र ने अपने पिता की लाइसेंसशुदा पिस्टल लेकर अपने सहपाठी
को गोली मार दी, आरोपी और उसका साथी दोनों नाबालिग पाए गए। स्कूल-बस्तियों
के बाहर भी हिंसा बढ़ी है — यह अब केवल किशोरों की शरारत नहीं रही बल्कि सामाजिक
नियंत्रण से बाहर होती हिंसा बनती जा रही है। उदाहरण के लिए, ‘चाकू स्कूल बैग में, कट्टा लंच-बॉक्स में’ जैसी
रिपोर्टें सामने आई हैं। बल्लभगढ़ (फरीदाबाद) में कोचिंग में पढ़ रहे सहपाठी ने
छात्रा पर देसी कट्टे से दो राउन्ड फ़ाइरिंग कर दी। पलवल में एक निजी स्कूल के पाँचवीं
का छात्र अपने स्कूल बैग में अपने पिता की लाइसेंसशुदा पिस्टल लेकर आया। ये घटनाएँ
सिर्फ एक-दो असामान्य मामले नहीं हैं — बल्कि संकेत कर रही हैं कि बच्चों के जीवन
में सुरक्षा, संवाद, नैतिक शिक्षा,
मानसिक स्वास्थ्य जैसे कारकों की कमी किस तरह घातक रूप ले सकती है।
हिंसा की ओर उन्मुख बच्चों के
पीछे कई कारण हो सकते हैं जैसे समसामयिक दबाव: पढ़ाई-प्रदर्शनी, प्रतियोगिता,
सामाजिक मीडिया पर छवि निर्माण — ये सब बच्चों में असहजता, तनाव, प्रतिस्पर्धात्मकता बढ़ा रहे हैं। घर-परिवार व
सामाजिक परिवेश का पतन: यदि बच्चे घरेलू हिंसा, उपेक्षा,
संवादहीन परिवेश में बड़े हो रहे हों तो उनका व्यवहार बाहर निकलकर
हिंसात्मक हो सकता है। सामाजिक-मानसिक शिक्षा की कमी: स्कूलों में केवल शैक्षणिक
शिक्षा दी जाती है पर भावनात्मक बुद्धिमत्ता, सहानुभूति,
संवाद-प्रशिक्षण जैसे पहलुओं की अनदेखी होती है। हथियार और
शिक्षा-सुरक्षा-मानदंडों की लचरता: जैसे गुरुग्राम एवं पलवल की घटना में देखा गया
कि पिता की लाइसेंसशुदा पिस्टल घर में सुरक्षित नहीं रखी गई थी। साथी-संबंधित कलह
भी आज बड़ी समस्या बन रहे हैं। कोई मित्र-विवाद, प्रतिशोध,
सामाजिक रैंक-भेद आदि कारण छोटे बच्चों को बड़ा अपराध करने तक ले जा
सकते हैं।
बाल दिवस पर सिर्फ समारोह करना
पर्याप्त नहीं है। हमें बच्चों के जीवन में सक्रिय योगदान देना होगा: परिवार-विद्यालय-समाज
का एक सक्रिय तंत्र बनाना होगा जहां बच्चा खुलकर अपनी बात कह सके। स्कूलों में
भावनात्मक शिक्षा जैसे कार्यक्रम लाएँ। स्कूल सुरक्षा-मानदंड कड़ाई से लागू करें:
हथियार लेकर स्कूल आना बर्दाश्त नहीं होना चाहिए। माता-पिता लाइसेंसशुदा हथियार
सुरक्षित स्थान पर रखें, बच्चों के मोबाइल/सोशल मीडिया उपयोग पर नजर रखें, संवाद खुला रखें। माता-पिता-शिक्षक-समाज मिलकर बच्चों को कहें कि हिंसा
किसी भी संकट या समस्या का समाधान नहीं है, हिंसा के विकल्प
हैं - संवाद, समझौता, शिक्षक-मित्र-परामर्श।
मानसिक स्वास्थ्य-समर्थन की व्यवस्था करें: कई बार बच्चों का आक्रोश सिर्फ सामाजिक
दबाव या उपेक्षा का परिणाम होता है जिसे स्कूल में काउंसलर द्वारा समझाने से शांत
किया जा सकता है।
14 नवंबर का यह
दिन हमें याद दिलाता है — बच्चों को सिर्फ उपहार और खुशी देना ही मकसद नहीं है,
बल्कि उन्हें सुरक्षित, सम्मानित, समर्थित और सक्षम बनाना है। यदि हम समय रहते कदम नहीं उठाए, तो हिंसा-प्रवृत्ति न सिर्फ कुछ बच्चों में पनपेगी, बल्कि
समाज-विश्वास, विद्यालय-सुरक्षा एवं भविष्य-निर्माण को भी
चोट पहुँचा सकती है। बाल दिवस पर यह प्रण लें कि हम हर बच्चे को एक सुरक्षित और
सकारात्मक जीवन देने की दिशा में काम करेंगे। तभी यह दिन वास्तव में अर्थ रखेगा और
बच्चों के प्यारे चाचा नेहरू के सपनों का भारत बन सकेगा, जिनके
जन्मदिन के उपलक्ष में यह दिन बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है ।
-
जगदीप सिंह मोर, शिक्षाविद

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