शिक्षक दिवस पर एक प्रतिबिंब — सम्मान, असमानता और न्याय की चाह


 

शिक्षक दिवस पर एक प्रतिबिंब — सम्मान, असमानता और न्याय की चाह


5 सितंबर, डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जयंती को शिक्षक दिवस के रूप में मनाना हमारे लिए केवल औपचारिकता नहीं, बल्कि अवसर है यह सोचने का कि क्या वास्तव में हम अपने शिक्षकों के प्रति सम्मान और उनके अधिकारों के प्रति संवेदनशील हैं।

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने कई आदेश दिए हैं जो हमारी चर्चा को और सशक्त बनाते हैं: उत्तर प्रदेश में इंचार्ज हेडमास्टर्स का वेतन: सुप्रीम कोर्ट ने 13 अगस्त 2025 को आदेश दिया कि जो शिक्षक प्रधानाध्यापक का कार्यकाल निभाते हैं, उन्हें उसी वेतन और बकाया राशि का भुगतान किया जाए। इससे लगभग 50,000 शिक्षकों को लाभ मिलेगा और उनके वर्षों पुराने बकाया का निदान होगा। बिहार के संबद्ध डिग्री कॉलेजों के शिक्षकों की सुरक्षा: 31 अगस्त 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने यह सुनिश्चित किया कि 19 अप्रैल 2007 से पहले नियुक्त शिक्षकों को वेतन और पेंशन मिलना चाहिए—बिना किसी और देरी के। संविदा शिक्षकों की समानता: न्यायालय ने यह जोर देकर कहा कि संविदा शिक्षकों को भी न्यूनतम स्वीकार्य वेतन मान मिलना चाहिए, क्योंकि वे नियमित शिक्षकों के समकक्ष कार्य कर रहे हैं। निजी स्कूल शिक्षकों को ग्रेच्युटी का अधिकार: 29 अगस्त 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय सुनाया कि निजी स्कूलों के अध्यापकों को ग्रेच्युटी का हक़ मिलना चाहिए, जिससे दीर्घकालीन सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक आदेश में टिप्पणी करी - “अध्यापक राष्ट्र निर्माता हैं, उनके वेतन और स्थिति को लेकर गंभीरता से सोचना आवश्यक है।” यह टिप्पणी हमें झकझोरती है, क्योंकि हकीकत यह है कि निजी विद्यालयों में हजारों शिक्षक मात्र छह हजार रुपये मासिक वेतन पर कार्य करने को विवश हैं। यह विडंबना है कि जहाँ उच्चतम न्यायालय ने अध्यापकों के लिए पात्रता परीक्षाएँ अनिवार्य कर दी हैं, वहीं उनके वेतन मान और कार्य परिस्थितियों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। अनेकों सरकारी स्कूल मूलभूत सुविधाओं से भी वांछित हैं, कहीं विद्यालय की छत गिर रही है तो कहीं पीने का पानी एवं शौचालय जैसी सुविधाएँ भी नहीं हैं। निजी स्कूल संचालक शिक्षकों को वेतन भोगी से ज्यादा कुछ नहीं समझते, दो दशक से भी ज्यादा सेवाएँ दे चुके शिक्षक भी निदेशकों के सामने दीन-हीन ही दिखाई पड़ते हैं, जिन्हें जब चाहे स्कूल से निकाला जा सकता है। साल-दर-साल उनकी नौकरी पर तलवार ही लटकी रहती है।

आज स्थिति यह है कि योग्य युवा शिक्षक बनने की बजाय अन्य क्षेत्रों की ओर आकर्षित हो रहे हैं। शिक्षक का पेशा अंतिम विकल्प के रूप में देखा जाने लगा है। यह प्रवृत्ति शिक्षा की गुणवत्ता पर भी प्रतिकूल असर डाल रही है विद्यालयों में अनुशासनहीनता बढ़ती जा रही है। स्कूलों एवं बोर्ड में यह अवसर पूर्ण स्थिति बनी हुई है — जिससे शिक्षक का आत्मसम्मान निरंतर क्षतिग्रस्त हो रहा है। विगत वर्ष में अनेकों ऐसी घटनाएँ हुई जहां छात्रों ने अनुशासनहीनता के सारे आयामों को लांघते हुए प्रधानाचार्य, शिक्षक गण एवं सहपाठियों की नृशंस हत्या कर दी। शिक्षकों के पास न तो कोई ठोस अधिकार हैं, न ही दंड प्रावधान। छात्रों को यह भलीभाँति ज्ञात है कि उनके विरुद्ध कोई कठोर कार्रवाई नहीं हो सकती। इस मानसिकता का लाभ उठाते हुए वे अनुशासन से विमुख हो रहे हैं और शिक्षक का आत्मसम्मान लगातार हाशिए पर धकेला जा रहा है।

बोर्ड एवं सरकार सारे नियम शिक्षकों के लिए ही बनाने को उतारू हैं, अब समय आ गया है कि छात्रों के लिए भी एक एस.ओ.पी. जैसा आचरण संहिता तैयार की जाए जिसके आधार पर छात्र को क्रेडिट मिलने का प्रावधान भी हो।

हमारे देश में डॉक्टरों एवं अन्य पेशों की सुरक्षा और सम्मान सुनिश्चित करने के लिए सरकार ने कानून बनाए हैं। इसी प्रकार अब यह समय है कि शिक्षकों के आत्मसम्मान और सुरक्षा को भी विधिक संरक्षण दिया जाए।

इस शिक्षक दिवस पर हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि हम शिक्षा को केवल रोजगार का साधन न मानकर राष्ट्र निर्माण का आधार मानेंगे। शिक्षकों के लिए भी विधिक सुरक्षा, सम्मान और उचित वेतन संरचना सुनिश्चित की जाए, ताकि शिक्षा व्यवसाय को पुनः शिखर पर लाया जा सके।

- जगदीप सिंह मोर, शिक्षाविद

Comments

Popular posts from this blog

My Article In The Millennium Post Newspaper on the Pathos of the Education System of India

ऑपरेशन सिंदूर : कितनी शक्ति, कितनी दुर्बलता / (Analysis of our Strength and Weakness)

बचपन बचाओ क़ानून : ऑस्ट्रेलिया से सीखे भारत