छद्मावरण, झूठ एवं जंग
छद्मावरण, झूठ एवं जंग
आधुनिक इतिहास गवाह है कि हर युद्ध से पहले विकसित देशों ने एक झूठ का पुलिंदा तैयार किया और छद्मावरण ओढ़े अपना वक्तव्य प्रबल किया। जिसका पश्चिमी मीडिया ने खूब प्रचार प्रसार किया और आम आदमी तक इसको किसी प्रलोभन की तरह पहुँचाया। आम जनता के मन में भय बनाया गया और युद्ध को एक मात्र विकल्प के रूप में समझाया गया।
अपनी याददाश्त को थोड़ा झंखोर कर देखिए तो पिछले बीस सालों में गढ़े गए ऐसे अनेकों जुमले आपको याद आएँगे। सूपरपॉवर अमेरिका इस खेल का प्रखर खिलाड़ी है, पश्चिमी मीडिया हाउस जैसे बी॰बी॰सी॰, सी॰एन॰एन॰, टाइम मैगजीन, द गार्डियन, द इकॉनमिस्ट, वॉशिंटॉन पोस्ट इत्यादि ने अपने आकाओं का भरपूर साथ दिया और झूठे वर्णन की खूब दुँधूबी बजायी। अमेरिका के स्वर में स्वर मिलाया नाटो देशों ने। इसी खेल में इन्हीं के रचे नियमों का फायदा उठाया रूस एवं चीन ने। उन्होंने भी अपने स्वयं रचित नैरेटिव राग को खूब ज़ोर शोर से गाया और संसार को सुनाया।
आपको याद ही होगा कैसे अमेरिका ने इराक में जैविक हथियार होने के अपने सिद्धांत को खूब चलाया, ऐसा माहौल बनाया कि अगर इराक पर हमला नहीं किया गया तो दुनिया बर्बाद हो जाएगी। सभी को लगा जैसे अमेरिका ही दुनिया का रक्षक है, जिसे स्वयं सृष्टि रचयिता ने भेजा है सद्दाम हुसेन रूपी राक्षस का हरण करने। पर हुआ क्या? एक भी जैविक हथियार नहीं मिला और अच्छे भले देश को बर्बादी के अनंत सागर में झोंक दिया गया, जिससे वह आज तक उभर नहीं पाया है। वरन असली बात तो यह थी कि अमेरिका की बुरी नज़र इराक के कच्चे तेल भंडार पर थी जिसका उसने बखूबी दोहन किया।
अफ़ग़ानिस्तान को ही देख लो, जिसको लेकर क्या क्या नहीं लिखा गया, निरंतर एक दशक तक मीडिया ने क्या-क्या राग नहीं आलापे, परंतु हुआ क्या? बहुत बेआबरू हो कर अमेरिका को वहाँ से निकलना पड़ा। बेचारा अफ़ग़ानिस्तान एक सदी पीछे धकेल दिया गया।
मसीहा बनकर आने वाले राष्ट्रपति ओबामा ने सीरिया के लिए भी कुछ ऐसा ही छद्मावरण रचा। लाखों लोग बेघर हुए, हज़ारों मारे गए, दस लाख से अधिक रेफ़्यूजी हो गए, देश मिट्टी में मिल गया और ओबामा साहब को मिला शांति के लिए नोबेल पुरस्कार। वाह रे! पश्चिमी जगत, तेरी लीला अपरम्पार।
ऐसा ही झूट अब बोला जा रहा है। रूस चिल्ला चिल्ला कर कह रहा है कि यूक्रेन नाटो की कठपुतली बन रहा है, वो हमारे लिए ख़तरा है इसलिए युद्ध ही एकमात्र विकल्प है। उधर नाटो देश कह रहे हैं की हमारा यूक्रेन से कोई सीधा संबंध नहीं है, बल्कि यूक्रेन के ज़रिए रूस यूरोप में घुसना चाहता है। दोनो पक्ष अपनी अपनी ढपली बजा रहे हैं। यहाँ भी मसला कुछ और ही है, किसी को किसी से खतरा नहीं है वरन रूस की नजर बहुत समय से यूक्रेन के विशाल उपजाऊ मैदानी भाग पर रही है, पूर्वी यूक्रेन में खनिजों का भंडार है, क्रिमिया में उष्ण पानी के बंदरगाह है जिसे वह हड़पना चाहता है।
कुछ ऐसा ही खेल चीन भी खेल रहा है। चीन भी पिछले कुछ समय से मुखर रूप से कह रहा है कि उसकी विशाल संप्रभुता को नन्हें से हांग-काँग व ताइवान से ख़तरा है। यह बिलकुल वैसा ही है जैसे जंगल में लकड़बग़्घा कहे कि मुझे खरगोश से ख़तरा है। और खतरा भी इतना की जंग छेड़नी पड़ेगी।
हर जंग से पहले ये सूपरपॉवर देश ऐसे ही झूटे पुलिंदे खड़े करते हैं, जिसे इनके मीडिया हाउस दिन रात दोहराते हैं जिससे आम जनमानस में इनके पक्ष में धारणा बन सके। जब तक जंग मध्य एशिया तथा अफ्रीका में होती रही तब तक यह गोरी चमड़ी वाले खूब जंग के पक्षधर बने रहे। आज जब युद्ध इनके घर के पिछवाड़े में ही छिड़ गया तब इनकी चूलें हिल गयीं हैं। ‘गोरों से गोरे लड़ें, करें तृतीय विश्व युद्ध का आग़ाज़’, आज इनका राष्ट्रगान बन चुका है। संयुक्त राष्ट्र कठपुतली का खेल दिखाने का मैदान भर रह गया है। सारे देश भाषण बाजी कर अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो रहे हैं। कितनी बड़ी विडम्बना है कि रूस अपने ही खिलाफ लाए प्रस्ताव को वीटो कर रहा है।
इन बड़े देशों को यह समझना चाहिए की इनके द्वारा शुरू की गयी जंगों का असर सदियों तक रहता है। ये देश तो अपने सारे आधुनिक हथियारों का परीक्षण कर निकल जाते हैं, पीछे रह जाती हैं इन हथियारों के खरीदारों से सजी लदी मंडियाँ। जहां इन हथियारों की बोली लगायी जाती है, और छोटे से छोटा देश भी बड़े से बड़ा हथियार खरीदना चाहता है। पूरा विश्व दो खंडों में बट कर रह जाता है, और दुनिया के किसी ना किसी कोने में युद्ध निरंतर चलता रहता है। युद्ध के नियम भी इनके, हथियार भी इनके और रेफ़री भी ये ही। आज सम्पूर्ण मानवजाति को यह सोचना होगा कि ये विस्तारवाद कब तक चलेगा? क्यूँ मनुष्य ही मनुष्य का दुश्मन बना हुआ है? महान शायर साहिर लुधियानवी की यह नज़्म आज के परिपेक्ष में बिल्कुल सटीक बैठती है :
ख़ून अपना हो या पराया हो,
नस्ल-ए-आदम का ख़ून है आख़िर
जंग मशरिक़ में हो कि मग़रिब में
अम्न-ए-आलम का ख़ून है आख़िर
बम घरों पर गिरें कि सरहद पर,
रूह-ए-तामीर ज़ख़्म खाती है
खेत अपने जलें कि औरों के,
ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है
टैंक आगे बढ़ें कि पीछे हटें,
कोख धरती की बाँझ होती है
फ़त्ह का जश्न हो कि हार का सो
ज़िंदगी मय्यतों पे रोती है
जंग तो ख़ुद ही एक मसअला है,
जंग क्या मसअलों का हल देगी
आग और ख़ून आज बख्शेगी,
भूख और एहतियाज कल देगी
इस लिए ऐ शरीफ़ इंसानो,
जंग टलती रहे तो बेहतर है
आप और हम सभी के आँगन में,
‘शम्अ' जलती रहे तो बेहतर है ।।
जगदीप सिंह मोर, शिक्षाविद
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