बिन शिक्षक सब सून
बिन शिक्षक सब सून
सम्पूर्ण भारतवर्ष ने कुछ दिन पूर्व शिक्षक दिवस मनाया, हर व्यक्ति ने अपने-अपने शिक्षकों को याद किया एवं व्हाट्सएप, ट्विटर तथा फेसबुक पर ढेरों मेसेज का ताँता लगा रहा। किंतु हमें अपने आप से एक प्रश्न पूछना चाहिए कि हम सब भारतवासी क्या सच में शिक्षकों को उनका उचित सम्मान देते हैं या ये सिर्फ़ सोशल मीडिया के दिखावे भर रह गया है?
कोरोना महामारी के इन दो सालों ने हमारे शिक्षा जगत की नींव हिला कर रख दी। जहां एक ओर हर किसी ने बच्चों के भविष्य को ले कर खूब चिन्ताएँ दिखायीं एवं आने वाले समय के आलेखन पर खूब रेखाएँ खींची वहीं किसी ने भी प्रखर स्वर में शिक्षकों के भविष्य को लेकर चिंता नहीं दिखायी, ना ही इन दो वर्षों में शिक्षकों की जीविका किस प्रकार चली इस पर किसी का ध्यान गया। बुद्धिजीवियों ने बच्चों के मनोवैज्ञानिक स्तर का मूल्यांकन बखूबी किया पर शिक्षकों के मनोविज्ञान पर हर जगह अपने नेत्र मूँद लिए।
दो दशकों का अनुभव समेटे प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक श्री विकास अत्रि कहते है: ज़रा बीते दो वर्षों पर नज़र डाल कर देखा जाए तो पता चले कि शिक्षक ने अपने आप को कितनी जल्दी नए अवतार में ढ़ाल लिया। कक्षा की चौक-बोर्ड-पेपर प्रणाली को छोड़ कम्प्यूटर-ज़ूम-गूगल होते शिक्षक आम हो गए। बिना किसी ट्रेनिंग और अभ्यास के शिक्षकों का अनंत कम्प्यूटरीकृत होना लाज़मी हो गया। श्री अत्रि बताते हैं कि, शिक्षकों ने अपने आप ही ये कम्प्यूटरी जटिलताएँ हल करी एवं विद्यार्थियों तक शिक्षा लाभ पहुँचाया। गूगल-मीट, ज़ूम वीडियो, गूगल फॉर्म, वीकलेट्स, माइक्रसॉफ़्ट क्लास, ईमेल, ब्रॉड्कैस्ट इत्यादि ना जाने कितने असंख सॉफ़्ट्वेर में शिक्षकों को स्वतः ही पारंगत हासिल करना पड़ा। हर विषय के शिक्षकों को दोहरी भूमिका निभाते हुए तकनीक एवं विषय-ज्ञान में माहिर होना पड़ा। सबसे ज्यादा मुश्किलें संस्कृत, हिंदी, शारीरिक शिक्षा, गान-नृत्य के शिक्षकों को उठानी पड़ी, तकनीक के साथ-साथ अंग्रेज़ी भाषा को भी साधना पड़ा। (क्यूँकि हर सॉफ़्ट्वेर अंग्रेज़ी भाषा में ही उपलब्ध है।)
हमारे देश में शिक्षक का दर्जा भगवान से भी ऊपर बताया गया है, पर इन दो वर्षों में गुरुओं की सुध किसी ने न ली। सबसे दयनीय स्थिति निजी स्कूल के शिक्षकों की रही। जहां एक ओर स्कूलों की फीस नहीं आई वहीं निदेशकों ने शिक्षकों को बाहर का रास्ता दिखा दिया, जो बच गए उनके वेतन में भारी कटौती करी गयी और कार्य प्रणाली में भरसक नए प्रयोग किए गए। इस दौरान शिक्षकों को किन मानसिक सदमों से गुजरना पड़ा इस पर सभी मूकदर्शक बने रहे। शिक्षकों के ऊपर निदेशकों एवं अभिभावकों के कटु वचनों का दोहरा कुठाराघात किया गया। सरकार द्वारा भी सारी नीतियाँ छात्र केंद्रित ही रही, शिक्षकों का निरंतर उपहास ही हुआ।
आने वाले दिन भी गुरुवरों के लिय कम चुनौती भरे नहीं होने वाले। शिक्षकों को निरंतर अपने कार्य कौशल में इज़ाफ़ा करना होगा एवं विषय ज्ञान के साथ साथ तकनीकी रूप से भी सुदृढ़ होना होगा। ऑनलाइन शिक्षा प्रणाली का नया दौर चुपके से दबे-पाओं आ अपनी जगह बना चुका है। बीते दो सालों में यही न्यू नॉर्मल हो चला है। और अब अगले सत्र से स्कूल खुल भी जाएँ परंतु यह नवीन शिक्षा पद्दती जाने वाली नहीं हैं। स्कूली शिक्षा का एक बड़ा भाग अब सदा के लिए ऑनलाइन ही हो चला है।
भारतीय शिक्षण तंत्र को कोरोना काल में यदि किसी ने संभाला हुआ है तो वो हैं हमारे शिक्षकगण, सरकार ने तो कोरोना के आगे घुटने टेक दिए थे, कोई भी दिशा निर्देश नहीं होते हुए भी, शिक्षकों ने ऑनलाइन शिक्षा पद्धति को अपनाया एवं घर बैठे विद्यार्थियों को लाभान्वित किया। शिक्षकों के इसी भरसक प्रयास के कारण आज शिक्षा जगत में आशा की किरण दिखाई देती है। शिक्षकों ने अपने घर परिवार को त्याग कर चौबीसों घंटे छात्रों के लिए ऑनलाइन उपलब्ध होना स्वीकारा।
आज हम सबका यह कर्तव्य होना चाहिए कि हम सब एक स्वर में सम्पूर्ण शिक्षक गण का अभिनंदन करें व दिल से कोटि कोटि धन्यवाद दें, यही हमारी ओर से डॉ॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
जगदीप सिंह मोर, शिक्षाविद
Comments
Post a Comment