शिक्षक की व्यथा


शिक्षक की व्यथा  

‘शिक्षा’ शब्द सामने आते ही हमारे ज़हन में अपने प्रिय शिक्षक की तस्वीर बन उठती है। सिर्फ़ तस्वीर ही नहीं उस शिक्षक के साथ बिताए गए सुनहेरे पल भी दिल-ओ-दिमाग़ में ज़िंदा हो उठते हैं। युग युगांतरों से शिष्य अपने हिस्से का सुख छोड़ कर गुरु सेवा को ही अपना अग्रिम धर्म समझता था। गुरु का स्थान तो भगवान से भी ऊपर बताया गया है। यही कारण है कि शिक्षक दिवस का हमारे देश में बहुत महत्व है।    

परंतु आज के दौर में गुरूयों को काँटों भरे रास्ते पर सफ़र करना पड़ रहा है। आज बदले हुए ज़माने में शिष्य सम्पूर्ण सुख ले रहा है वरन शिक्षक निंदा का पात्र बना हुआ है। हाल ही में हुई एक घटना ने सम्पूर्ण शिक्षा जगत को झंकझोर कर रख दिया। जमशेदपुर के पास एक गाँव के स्कूल में दसवीं के एक छात्र ने अपनी गणित की शिक्षिका के ऊपर स्कूल परिसर में ही चाक़ू से वार किया, उनका क़त्ल किया एवं शिक्षिका की गर्दन काट, उनका सर हाथ में ले, पूरे गाँव में घुमाया। इससे ज़्यादा विभत्स्यात्मक घटना सम्पूर्ण शिक्षा जगत के लिए कुछ और नहीं हो सकती। विस्मय यह रहा कि मीडिया ने इस घटना को ज़्यादा तवज्जो नहीं दी।

पिछला एक साल ऐसी अनेकों घटनाओं से भरा रहा जहाँ शिक्षक कभी अपने ही शिष्यों द्वारा बेज़्ज़त किए गए, कभी उनके चाकुओं का वार सहा तो कभी उनकी गोलियों का शिकार हुए। स्कूली शिक्षा प्रणाली अपने निम्न स्तर पर पहुँच गयी है। सरकारी व प्राइवट दोनों स्कूलों में शिक्षक का हाल बुरा ही है। जहाँ एक ओर सरकारी विद्यालयों में लचर बुनियादी ढाँचा शिक्षकों के लिए चुनौती है तो वहीं निजी विद्यालयों में भगवान स्वरूप शिक्षकों को कुर्सी तक मोहिया नहीं है। स्कूलों में पर्याप्त शिक्षकों की निरंतर क़मी बनी रहती है, तो मौजूदा शिक्षक ही दिन भर खड़े रह कर शिक्षा की गिरती बुनियाद अपने कंधों पर उठाए हुए हैं।

यह कुछ ऐसा ही है जैसे आप फ़िल्म देखने एक बढ़िया सिनेमा हॉल में गए। प्रधानता फ़िल्म की ही है पर फ़िल्म की गुणवत्ता अब सिर्फ़ अभिनेता या अभिनय तक सीमित नहीं है अपितु सिनेमा हॉल में बैठने वाली वो आराम दायक कुर्सी, डिजिटल डोल्बी साउंड सिस्टम, परदे के उजले रंग, हॉल के अंदर का तापमान, कैंटीन का ज़ायक़ेदार खाना सब साथ मिलकर एक अनूठे आनंद दायक अनुभव को जन्म देते हैं। उपरोक्त कही कोई भी चीज़ निम्न या महान नहीं है बल्कि सबकी अपनी अलग व आधारभूत महत्वता है, जो एक सम्पूर्ण आनंदायी अनुभव की जन्मदात्रि हैं। ये अनुभव ही हमें दोबारा सिनेमा हॉल खींच कर ले जाता है। अगर आपसे कहा जाए कि सब कुछ वैसा ही रहेगा बस आपको बैठने के लिए कुर्सी नहीं मिलेगी तो आप ही बताओ क्या आपका अनुभव यादगार रहेगा? कल्पना कीजिए की उसी सिनेमा हॉल की छत टपक रही है, या फिर पंखा/ए.सी.नहीं चल रहे, और जुलाई की उमस भारी गरमी में आप फ़िल्म देख रहे हैं। जब आप बाहर निकलें तो हर कोई आपसे पूछ रहा हो कि फ़िल्म कैसी लगी? अब, जब आप चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे होंगे की बैठने को कुर्सी नहीं थी, या फिर गरमी बहुत थी तो आपसे कहा जाए ये सब छोड़ो यह बताओ फ़िल्म कैसी लगी, आख़िरकार प्रधानता तो फ़िल्म की ही थी ना? कुछ ऐसा ही हाल है आज के शिक्षा क्षेत्र का है। एक तरफ़ शिक्षकों से यह उम्मीद की जाती है कि वह शिक्षा की गुणवत्ता बनाए रखे वहीं दूसरी तरफ़ उसकी तकलीफ़ कोई सुनना नहीं चाहता। जहाँ सरकारी स्कूलों में बैठने के लिए बेंच नहीं हैं, पंखे नहीं हैं, शौचालय नहीं है, तो निजी स्कूलों में शिक्षकों के वेतन का कोई मापदंड नहीं है। संचालक अपने मन-माफ़िक़, शिक्षकों को ‘हायर एंड फ़ायर’ पॉलिसी के तहत अपनाते - निकालते रहते हैं। 

आज शिक्षक – अभिभावक समन्वय भी अपने निम्न स्तर पर है। अभिभावक स्कूली शिक्षक को निम्न वर्ग का कर्मचारी ही समझने में आनंद लेता है। बच्चे भी इसी बात का बख़ूबी दुरुपयोग कर रहे हैं। हाल ही में दिल्ली के एक प्रतिष्ठित निजी स्कूल के कक्षा नवमीं के दो छात्र स्कूल के बाद घर जाने के बजाए, मौज-मस्ती करने के लिए एक क्लब में चले गए। अभिभावकों ने स्कूल का घेराव किया, शिक्षकों के ख़िलाफ़ अभद्र भाषा का उपयोग किया, एवं स्कूल को इसका पूर्ण ज़िम्मेवार ठहराया। शाम को जब दोनों बच्चे वापिस आ गए, तब जा के दूध का दूध और पानी का पानी हुआ, परंतु तब भी उनके ख़िलाफ़ कोई ठोस कार्यवाही नहीं की, जबकि क्लास टीचर को उच्च रक्तचाप के चलते हस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। हरियाणा के एक जिले में भी अभी हाल ही में कुछ ऐसा हाई हुआ, बारहवीं कक्षा का एक बिगड़ैल बच्चा स्कूल बस से उतरा और घर जाने के बजाए, विडीओ बनाने के लिए रेल्वे स्टेशन चला गया। दुर्भाग्यवश वो रेल की चपेट में आ गया, बस फिर क्या था – घर वालों ने प्रिन्सिपल का घिराव किया एवं ज़ोर-शोर से स्कूल के ख़िलाफ़ सोशल मीडिया पर हल्ला बोल दिया। अभिभावक अपनी ज़िम्मेवारी से पल्ला झाड़ लेते हैं एवं स्कूल को ही दोषी क़रार दे देते हैं। आज शिक्षक एक डर के माहौल में जी रहा है, ना जाने कौन सी बात पर छात्र क्षुब्ध हो जाए और उसकी फ़ज़ीहत हो जाए। 
                       
पोकसो एवं जे.जे.ऐक्ट भी इसी कड़ी का हिस्सा हैं, अनेकों झूटे केसों में शिक्षकों को फँसाया जाना आम हो रहा है। महीने भर पहले ऐसा ही केस सामने आया, जब एक 92वर्ष के शिक्षक पर झूटे आरोप के तहत पोकसो का केस दर्ज हुआ। शिक्षक के जीवन भर की कमायी हुई प्रतिष्ठा ख़ाक हो गयी। डर है कि कहीं इन क़ानूनों का हाल भी दहेज के क़ानून जैसा ना हो जाए, जिनका उपयोग से ज़्यादा दुरुपयोग होना शुरू हो जाए। देश भर में सारे क़ानून एक-तरफ़ा होते जा रहे हैं, शिक्षकों के लिए एक भी क़ानून नहीं है।   

पूरा साल नेता, सरकार, अधिकारी, स्कूली संचालक, अभिभावक एवं बुध्धिजीवि ‘हर बच्चा ख़ास है’ का राग अलापते हैं, और कहते हैं की बच्चे में कोई ना कोई कौशल तो होगा, वो आगे जाकर उसे ही अपनी आजीविका का साधन बना लेगा। परंतु परीक्षा परिणाम के समय उनका दोगला रवैय्या सामने आ जाता है, ऐसे में अगर वह छात्र परीक्षा में अनुतीर्ण हो जाए तो बेचारे शिक्षक की तो ख़ैर नहीं। उसे महज़ एक वेतन भोगी होने की संज्ञा दे दी जाती है। समाज एक शिक्षक से यह उम्मीद तो लगा लेता है की पूरे राष्ट्र का बोझ उसके कंधों पर है परंतु वही समाज यह भूल जाता है कि जिस उच्चतम सम्मान का वह शिक्षक अधिकारी है वह उसे मिल भी रहा है या नहीं? एक युवक के शिक्षक होने पर यही समाज उसको दूसरे व्यवसायों के मुक़ाबले हेय दृष्टि के देखता है। जब शिक्षक के पास आपने कोई साधन छोड़ा ही नहीं तो वो बेचारा और करे भी तो क्या? 

प्राचीन गुरुओं से आज के शिक्षक की तुलना करना एक आम बात है, इतिहास के ज्ञान के आभाव में, आज कल के नागरिक टेलिविज़न पर गुरुओं के वस्त्र देख कर उनके दारिद्रय का परिचय लगा लेते हैं, परंतु वे यह भूल जाते हैं कि, गुरुओं को राजाओं से यह अनुमति प्राप्त हुआ करती थी की वे गुरुकुल के समीपवर्ती गाँवों से ख़ुद कर लेकर गुरुकुल का रखरखाव करें। गुरु हीन नहीं अपितु समृद्ध होते थे जिनके जीवन से लोग प्रेरणा लिया करते थे। वहीं आज का गुरु कहीं कहीं तो महज़ दो हज़ार का वेतन पा अपनी सेवाएँ मोहिया करवा रहा है।                 

स्कूली शिक्षकों की वर्क्शाप, ट्रेनिंग या मीटिंगों को देखा जाए तो सिर्फ़ यह निकल कर आता है की, एक शिक्षक कितना दीन-हीन प्राणी बनकर रह गया है, जिसे अंततः सिर्फ़ हाथ जोड़े ही खड़े रहना है। आज का शिक्षक सिर्फ़ एक ‘सॉफ़्ट-टार्गेट’ से ज़्यादा कुछ नहीं है, जिसे निरंतर यह भय सताता रहता है कि उसकी कौन सी बात को तोड़-मरोड़ के पेश कर दिया जाएगा और वह अट्ठहास का पात्र बन जाएगा। ऐसे में उसे अपनी नौकरी भी बचानी है एवं अपने कर्तव्य को भी निभाना है।                                                                         
                                            
आज समय की यह माँग है की सरकार इस व्यवसाय को अपनी खोई हुई बुलंदियों तक ले जाए। जल्द से जल्द एक ऐसे शिक्षक मंडल का निर्माण किया जाए जिसमें सभी शिक्षकों के हित हो बचाये रखने के पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हों। अगर जल्दी ही इस व्यवसाय को बचाया नहीं गया तो इसका हाल भी उस प्राचीन भारतीय संस्कृति जैसा हो जाएगा जिसके ज़िक्र पर हम गर्व तो करेंगे पर कभी उसे दोबारा पा ना सकेंगे। ग़ौरतलब रहे की जब-जब शिक्षकों का पतन हुआ है तब-तब पूरे समाज को रसातल का मुख देखना पड़ा है।   

-    जगदीप सिंह मोर, शिक्षाविद 

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