श्रद्धा का महासावन
मेरी दादी सावन के महीने में शिवमहापुराण का पाठ किया करती थी। वे प्रायः कहती थी कि शिवमहापुराण में लिखा गया है, ‘हे महादेव! आपको न साक्षात् वेद, न विष्णु, न सर्वसृष्टा ब्रह्मा, न योगिंद्र और न तो इंद्रादि देवगण भी जान सकते हैं, केवल भक्त ही आपको जान पाता है।‘ यही कारण है की काँवड़रियों को देवतुल्य माना गया है। मेरे बाल्यकाल से अब तक कांवड़ लाने के तरीक़े में बहुत बदलाव आ गया है। जहाँ पहले केवल पैदल कांवड यात्रा करने वाले ही हुआ करते थे, पग-पग भरते काँवड़रिए बम-बम भोले का नाम-जप करते हुए अपनी श्रद्धा यात्रा पूरी किया करते थे, वहीं आज के दौर में डाक-काँवड़, टाटा 407 में डी॰जे॰, मोटरसाइकल एवं कार में काँवड़ लाने का चलन ख़ूब धूम मचाए हुए है। पहले जिस रास्ते से काँवड़रिए जाया करते थे, हम उनकी चरणरज अपने माथे पर लगाया करते थे। पैदल काँवड़ लाना सबसे बड़ी तपस्या है एवं शिव के प्रति अपार श्रद्धा का प्रतीक है। दादी कहती थी कि, जिस घर का सदस्य काँवड़ लाने जाता है, उसके पूरे घर को एक निश्चित अनुशासन में रहना होता है। शिव के प्रति इतनी आपर श्रद्धा व समर्पण ही हिन्दू धर्म की शक्ति है।
परंतु आज के इस आधुनिक युग में काँवड़ यात्रा के मायने बहुत बदल गए हैं, काँवड़ लाना इतना सरल हो गया है की युवावर्ग इसे मनोरंजन स्वरूप ले रहा है, अक्सर यह मनोरंजन हुड़दंग का रूप भी ले लेता है। वो भगवान शिव की भक्ति में लगाए गए बम-बम के नारे आज डी॰जे॰ की ऊँची आवाज के सामने लुप्त होती दिखाई दे रही है। शिव की स्तुति के ऊपर नशा भी हावी हो रहा है। अगर हम आज नहीं चेतें तो आने वाली पीढ़ी के लिए भक्ति की नयी परिभाषा ही गठित करनी होगी।
- जगदीप सिंह मोर
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