'Change in the Election System'
चुनावी बदलाव : समय की मांग
भारत जब आज़ाद हुआ तो हमारे सामने विकल्प खुले थे कि हम राजशाही को अपनाये या लोकतंत्र को | लोकतंत्र में भी हमारे सामने अमेरिका की तरह राष्ट्रपति शासन अपितु ब्रिटेन की तरह प्रधान मंत्री शासन दोनों विकल्प उपलप्ध थे | संविधान को बनाने वाले इतने प्रबल दार्शनिक थे कि उन्होंने एक ऐसे शशक्त संविधान की रचना की जिसमें पूरे संसार की राजनीतिक खूबियों का समावेश किया | उन्होंने भारत के लिए संघीय लोकतंत्र का एक ठोस ढ़ाचा तैयार किया | संविधान को एक लिखित स्वरुप दिया गया जिसके हर अनुच्छेद पर उचित बहस के बाद बारिकी से गढ़ा गया | संविधानिक पदों की क्षमताओं की व्यापक व्याख्या करी गयी | संविधानिक द्वन्द होने पर नैतिकता एवं विवेक के आधार पर फैसला लेने का विकल्प रखा गया | शायद यहाँ ही संविधान के रचनाकारों से सबसे बड़ी भूल हो गयी की उन्होंने आज के नेताओं से नैतिकता की उम्मीद रख ली | आज वो महान लोग अगर कहीं से अपने इस सपनों के भारत को देखते होंगे तो उनका दिल बहुत दुःख पाता होगा |
उचित समय आ गया है की भारत के संविधान में शंशोधन किये जाएँ | हमारी चुनाव प्रणाली यह चीख चीख कर पुकार कर रही है की उसमें कुछ मूलभूत बदलाव किये जाएँ | अभी हाल ही में हुए कर्नाटक विधान सभा चुनाव एवं उसके बाद चला सियासी ड्रामा इस बात का ज्वलंत उदाहरण है की चुनाव प्रणाली को अब दीमक खाने लगी है | पांच साल राज करने वाली पार्टी को जनता नकारती है, परन्तु फिर भी वह सरकार बनवाने में सफल हो जाती है | तीसरे नंबर पर रहने वाली पार्टी, 222 (224) विधान सभा सीटों में से 38 सीट ला पाती है, फिर भी सरकार बनाती है एवं मुख्य मंत्री भी उन्हीं का होता है, वहीँ 104 सीटें ला कर प्रथम स्थान पर रहने वाली पार्टी हाथ मलती रह जाती है | गवर्नर के पद की गरिमा को भी जितनी ठेस इस चुनाव ने पहुचाई है उतनी कभी भी नहीं पहुंची | तीन दिनों तक चौबीसों घंटे टीवी चैनल इसी बात पर बहस करते रहे की क्या राज्यपाल ने जो किया वो सही है या गलत | दुःख की बात यह की वो सिर्फ विधि एवं कानून में ही उलझते रहे, नैतिकता पर किसी का ध्यान गया ही नहीं |
भारतीय निर्वाचन व्यवस्था में चुनाव से पहले एवं चुनाव के बाद, दोनों प्रकार के गठबंधन की सम्भावना रखी गयी है | चुनाव से पहले राजनीतिक दल आपस में हाथ मिला लेते हैं एवं सीटों का बटवारा अपनी सहुलियत अनुसार करते हैं | जिसके बाद शुरू होता है चुनावी जमघट | जनता मुख्यतः राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र, नेताओं के भाषण, एवं चुनावी वादों के आधार पर अपने वोट का इस्तमाल करती है | चुनाव-पूर्व गठबंधन संविधान स्वरुप है, जिसमें कम से कम जनता तो यह तो पता है कि कौन दोस्त है कौन दुश्मन |
संविधान पर अगर सबसे बड़ी चोट किसी ने की है, तो वो है चुनाव के बाद बनने वाले गठबंधन ने | चुनाव के दौरान जो नेता एक दुसरे को गालियाँ दे रहे थे, लांछन लगा रहे थे, एक दुसरे के विरुद्ध लड़ रहे थे , वे चुनाव के बाद सिर्फ अपने राजनीतिक स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए अचानक से प्रगाढ़ मित्र हो जाते हैं, मीडिया के सामने गलबइयां डालने लगते हैं | भोली भाली जनता यह सब मूक होकर देखती रह जाती है, इस से बड़ा संविधानिक छल कोई नहीं हो सकता | सत्ता की अफीम का नशा इन नेताओं पर कुछ इस कदर चढ़ता है की वो अपने ज़मीर तक तो बेच देते हैं फिर राजनीतिक खरीद-फरोख्त की एक ऐसी विसात बिछाई जाती है जिसमें नेताओं के ईमान की बोली लगाईं जाती है | सौ-सौ करोड़ रुपए ऐसे उछाले जाते हैं जैसे पार्टी के सरगना अपने घरों में टकसाल खोले बैठे हों |
चुनाव के बाद होने वाला गठबंधन, लोकतंत्र के लिए बहुत बड़ा ख़तरा है | आज सबसे बड़ी ज़रूरत है की इस अनैतिक चुनावी स्टंट को अपनी चुनावी प्रणाली से उखाड़ फैका जाये | संसद तो कभी ऐसा कानून लाएगी नहीं, क्यूँ की अगर वो ऐसा करते हैं तो उनकी राजनैतिक दुकानें बंद हो जाएँगी | इस संविधानिक बदलाव की उम्मीद सिर्फ सुप्रीम कोर्ट से ही लगायी जा सकती है |
- जगदीप सिंह मोर, शिक्षाविद
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