क्या व्यावहारिक हैं इतने बड़े आयोजन?

 


इस लेख का उद्देश्य किसी भी व्यक्ति/वर्ग की धार्मिक मान्यताओं को चुनौती देना कदापि नहीं है, वरन परिस्थितियों को प्रशासनिक एवं व्यावहारिक नजरिए से देखने हेतु है। 

महाकुंभ 2025 वर्तमान कालखंड का ध्रुव तारा बना हुआ है। धरती के एक छोटे से भूखंड पर एक समय में इतने मनुष्यों का एक साथ जमावड़ा अपने आप में असाधारण है। इतने बड़े मेले का आयोजन अत्यंत चुनौतीपूर्ण है। इसकी तैयारियों में असंख्य लोगों का परिश्रम, अगणित घंटों का पुरुषार्थ शामिल है। उत्तर प्रदेश सरकार एवं मेला प्रशासन इसके लिए प्रशंसा के पात्र हैं।

परंतु मौनी अमावस्या की रात्रि पर हुई भगदड़ एवं पुण्यात्माओं की क्षति ने इस महान उत्सव की शान में धब्बा लगा दिया। इसके उपरांत विभिन्न विवेचनाओं का जन्म हुआ और छींटा-कशी का दौर भी प्रारम्भ हुआ। जहां एक ओर मृतकों की संख्या को लेकर असमंजस है वहीं यह भी आरोप है कि सरकार ने क्षति का सटीक अवलोकन आमजन के समक्ष नहीं रखा है।

इसी प्रक्षेप में यह दक्ष प्रश्न उठता है कि, क्या हमें इतने बड़े आयोजन करने चाहिए? क्या प्रशासनिक एवं व्यावहारिक दृष्टिकोण से ऐसे आयोजन सम्भव हैं? आइए एक नज़र महाकुंभ 2025 के आंकड़ों पर डालें – 2 फरवरी तक लगभग 35 करोड़ लोग मेला परिसर में आ चुके हैं। महाकुम्भ की पूर्ण अवधि तक यह आंकड़ा 50 करोड़ के आस पास रहने की सम्भावना है। अकेले मौनी अमावस्या पर लगभग 10 करोड़ श्रद्धालु प्रयागराज में एकत्रित थे। कुंभ के लिए 40 वर्ग किलोमीटर का एक अस्थाई नगर बसाया गया जिसमें पांडाल, टेंट सिटी एवं वाहन पार्किंग शामिल हैं। अंदाज़ा लगाइए कि 40 वर्ग किलोमीटर में जिसके एक ओर नदी बह रही हो वहाँ एक साथ 10 करोड़ आदमी जमा हो जाएँ तो कैसा अनोखा मंजर रहा होगा। लगभग 25 लाख व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर का जनसंख्या घनत्व, यह ऐसा है जैसे 40 वर्ग किलोमीटर में पाँच दिल्ली शहर समाँ जाएँ। सोने पर सुहागा यह की ये विशाल जनसमूह संगम नोज की तरफ़ बढ़ रहा हो, तब जनसंख्या घनत्व कितना रहा होगा इसका केवल अंदाजा ही लगाया जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र के दिशानिर्देशों के अनुसार हर एक लाख व्यक्तियों पर 225 पुलिस बल होना चाहिए। इस हिसाब से लगभग 2.25 लाख पुलिस कर्मचारी मेले में होने चाहिए परंतु पूरे मेले के लिए लगभग 50 हज़ार पुलिस बल ही नियुक्त किया गया है। इन परिस्तिथियों में चाह कर भी पूरी प्रशासनिक शुचिता रख पाना असम्भव कार्य ही है।

अगर थोड़ा शांत हो कर सोचा जाए तो यह प्रमाणित हो जाएगा की इसके जिम्मेदार हम खुद ही हैं। हमने खुद ही तो यह मॉडल खड़ा किया है और समस्त उपलब्ध साधनों से इसका विज्ञापन एवं मार्केटिंग की, सम्पूर्ण मानवता को इसके प्रति लालायित किया एवं मीडिया द्वारा ऐसा मायाजाल रचा गया जैसे अगर इस जीवन काल में यदि यह अवसर छूट गया तो मनुष्य जन्म ही बेकार चला जाएगा। इस काल्पनिक प्रलोभन का रस आम जनमानस को ऐसे परोसा गया जैसे कोई दुर्लभ पारसमणि उनसे वंचित रह जाएगी। इंटरनेट के इस युग में इसके प्रत्यक्ष प्रमाण बहुतायत में उपलब्ध हैं जैसे इन्हीं मीडिया टी॰वी॰ चैनल ने 2019, 2013 में भी कुछ ऐसा ही प्रचार किया था की यह दुर्लभ संयोग 144 वर्ष बाद आ रहा है। अगर आंकड़ों पर नज़र डाली जाए तो क्यूँ की डेटा संयोजन में प्रगति पिछले 100 वर्ष का ही हुनर है जिस कारण हर संयोग में 100 वर्ष का फ़ासला आना आम बात है, इसी डेटा के प्रारूप को मीडिया ऐसे सजा कर प्रस्तुत करती है जिसके स्वर्णिम मायाजाल में साधारण मानुस फँस जाता है। भारतीय अर्थतंत्र जैसे-जैसे समृद्ध हो रहा है वैसे-वैसे लोगों के पास साधन विस्तार भी हो जा रहा है, इसी कारण अब तीर्थयात्रा नहीं बल्कि पर्यटन पर ज़ोर हो रहा है।

हमारी सरकार को यह सोचना होगा कि 1955 में कुल चार लाख लोग कुंभ में आए थे, आज यह आंकड़ा 50 करोड़ हो रहा है, फिर अगले और उस के अगले कुम्भ में यह आंकड़ा कितना होगा? क्या 60-70 करोड़ की भीड़ को दुनिया की कोई भी सरकार, कोई भी प्रशासन काबू में करने योग्य है? क्या यह प्रशासनिक तौर पर सम्भव है भी या नहीं? भीड़ का कोई तंत्र नहीं होता, भीड़ तो अचानक से एक क्षण में विकराल रूप ले सकती है, ऐसे में हुई जान माल की क्षति का जिम्मेदार कौन होगा?

अगर इस बार के कुंभ को उत्कृष्ट उदाहरण मान लिया जाए तो सोचिए कि अगले कुम्भ जैसे उज्जैन एवं नासिक में क्या मंजर देखने को मिलेगा? क्या ये छोटे शहर एवं त्रिवेणी के समक्ष शिप्रा एवं गोदावरी जैसी छोटी नदियाँ 50 करोड़ लोगों का बोझ झेलने के लिए तैयार हैं? इसका उत्तर शायद हमें अपने शास्त्रों में ही मिल जाएगा, भारत में चार जगह कुंभ होते है, अगर भूगोल के आधार अनुसार इन चारों कुंभों का प्रचार प्रसार हो और अपनी-अपनी भौगोलिक निकटता के आधार पर हम कुंभ स्नान करें तो व्यवस्था ज़्यादा सुचारू रूप से हो पाएगी। साधुगन को अपवाद की श्रेणी में रखा जाए एवं आम जनमानस को मीडिया प्रलोभन से बरगलाया ना जाए ये ही समय की माँग है।

सरकार ने कुम्भ के लिए विशेष 35 हज़ार अतिरिक्त ट्रेन चलाईं हैं, यह सभी रेलगाड़ियाँ प्रयागराज जंक्शन पहुँच रहीं हैं, क्या यह कृतिम जोखिम लेना अनिवार्य है? क्या संसार का कोई भी रेल प्रभंधन इसके लिए सक्षम है? क्या हमारे रेल्वे स्टेशनों के पास इतनी भीड़ झेलने के लिए पर्याप्त बुनियादी ढाँचा है? यह तो कोई हरी कृपा ही है जिस कारण अब तक यहाँ कोई रेल हादसा नहीं हुआ। जिस प्रकार रेलें ठेलम-ठेल चल रही हैं, आरक्षित कोच में भी खचा-खच भीड़ घुस यात्रा कर रही है, सड़क परिवहन मार्ग पर 25 किलोमीटर लम्बा जाम लग रहा है, ऐसे में हम खुद ही आपदा को आमंत्रण दे रहे हैं।

सब कुछ अच्छा करने पर अगर एक घटना सारे करे-धरे पर पलीता लगा दे तो ऐसे में हमें पुनर्विचार करने की आवश्यकता है कि क्या यह मॉडल उचित है या नहीं? इसी का अनुसरण भारत के सभी मंदिरों में हो रहा है, हाल ही में तिरुपति मंदिर में भगदड़ में श्रद्धालुओं की मृत्यु हुई। प्रयागराज में लेटे हुए हनुमान जी के बड़े मंदिर को बंद करना पड़ा, अयोध्या में हनुमानगढ़ी मंदिर को बंद करना पड़ा, वाराणसी में गंगा आरती को बंद करना पड़ा। ऐसे में भोले भाले भक्तों को कितना हृदयाघात पहुँचता होगा इसकी किसी को वेदना नहीं है।

खाटू श्याम मंदिर, बिहारी जी मंदिर वृंदावन, राधा रानी मंदिर बरसाना ऐसे अनेकों उदाहरण है, जो इन समस्याओं से नित्य जूझ रहे हैं, बस भगवान भरोसे ही भक्तों, विशेषकर बुजुर्ग एवं बच्चों की जान बच रही है। या तो इन मंदिरों का जीर्णोधार हो और आज की जनसंख्या के अनुरूप इनका निर्माण हो अथवा सरकार इनको विज्ञापन कर पर्यटक स्थल बनाने से बचे। बात कड़वी है मगर व्यवहार संगत है, बड़े त्योहारों पर मंदिर बाहरी पर्यटकों के लिए बंद किए जाएँ, एवं लोकल/घरेलू मंदिरों में पूजा को बढ़ावा मिले। वी॰आई॰पी॰ दर्शन पूर्णतः प्रतिबंधित रहें। शाही स्नान वाले दिन केवल साधु प्रवेश ही मान्य हो। जनमानस की सुरक्षा पूर्णतः सरकार की प्राथमिकता रहे।

(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

- जगदीप सिंह मोर, स्वतंत्र पत्रकार


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