एक परीक्षा ऐसी भी हो जिसमें बच्चे फेल हो सकें


 

एक परीक्षा ऐसी भी हो जिसमें बच्चे फेल हो सकें 



नए साल की अभी शुरुआत ही हुई है कि पहले ही महीने में भारत की कोचिंग कैपिटल कहे जाने वाले कोटा शहर में दो बच्चों ने मानसिक दबाव में आकर आत्महत्या कर ली। हाल ही की इन घटनाओं ने हर भारतवासी के दिल को झकझोर कर रख दिया है। अठारह वर्षीय निहारिका सिंह सोलंकी कोटा में आई॰आई॰टी॰ जे॰ई॰ई॰ परीक्षा की तैयारी कर रही थी। परीक्षा से पहले ही उसने अपने घर के रोशनदान से फांसी लगा आत्महत्या कर ली। निहारिका का हस्तलिखित सुसाइड नोट मिला जिस पर उसने लिखा था, ”मम्मी पापामैं जे॰ई॰ई॰ नहीं कर सकतीइसलिए मैं आत्महत्या कर रही हूँ। मैं हार गई हूँमैं सबसे ख़राब बेटी हूँ। मुझे माफ़ कर देना मम्मी पापा। यही आखिरी विकल्प है।“ चार पंक्ति के इस छोटे से सुसाइड नोट ने पूरे शिक्षा जगत को रसातल पर लाकर खड़ा कर दिया है। यदि प्रतियोगिता की तैयारी करने वाला एक छात्र यह कहे कि आत्महत्या ही आखिरी विकल्प हैतब यह समझ लेना चाहिए कि शिक्षा का यह सम्पूर्ण तंत्र भीतर से सड़ चुका हैऔर अब इसमें से दुर्गंध उठने लगी है।


एक नज़र अगर विगत वर्षों में अकेले कोटा में हुई आत्महत्या के आँकड़ों पर डाली जाए तो हर माता-पिता एवं शिक्षक का दिल बैठ जाए। साल 2024 में पहले महीने में दोगत वर्ष 2023 में 23 (औसतन हर महीने में दो)साल 2022 में 152021 में एक2020 में चार (कोविड के कारण कोचिंग संस्थान बंद थे)2019 में 82018 में 12 और 2017 में दस। पुलिस द्वारा जांच में ज्यादातर यह निकल के आया कि टेस्ट में कम अंक आने के कारण बच्चे तनाव में थे इसलिए उन्होंने यह आख़िरी विकल्प’ चुना।       


आज समय की यह मांग है की प्रतियोगिता के इस पूरे ढाँचे में मूलभूत परिवर्तन किए जाएँ। इसकी शुरुआत स्कूली शिक्षा से की जानी चाहिए। जहां एक ओर स्कूल में कक्षा आठ तक नो डिटेन्शन पॉलिसी हैवहीं कक्षा दसवीं एवं बारहवीं में बोर्ड हर साल नॉर्मलाइजेशन कर अंकों में बढ़ोतरी करता है। असली झटका बच्चों को तब लगता है जब वे प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठते है जहां एक-एक अंक की लड़ाई अपने चर्म पर होती हैउसके बाद मेरिट में आने के लिए जातीय श्रेणी अनुसार कट-ऑफ भी क्वालीफाई करनी पड़ती है। किसी प्रतियोगिता में दो चरण की परीक्षा होती है तो किसी किसी में तीन चरण की। जिस अनुपात में भारत की जनसंख्या बढ़ीउस अनुपात में शैक्षणिक संस्थानों एवं उनकी सीटों में बढ़ोतरी नहीं हो पायीजिस कारण यह दबाव साल दर साल बढ़ता ही जा रहा है। सोने पर सुहागा हुआ कोचिंग संस्थानों की बाढ़ आ जानाइन संस्थानों ने लुभावने विज्ञापनों से शहर के शहर पाट दिए। अभिभावकों एवं बच्चों के मन में यह विचार घर कर गया कि अगर कोचिंग के इन मंदिरों में नहीं गए तो शिक्षा रूपी भगवान मिलेगा ही नहीं। लाखों रुपये फीस लेकर इन संस्थानों ने बच्चों को सिर्फ रोबोट बनाने का ठेका ले लियाऐसा जटिल रूटीन बनाया जिससे नादान छात्रों के साधारण से मस्तिष्क में चिंगारियां उठने लगेया तो छात्र रोबोट बन जाए या फिर अपने को लूजर समझ आखिरी विकल्प चुनने लगे। 


स्कूल में एक परीक्षा ऐसी ज़रूर हो जिसमें बच्चे फेल हो सकें। बाल्यकाल से ही उनको यह समझाया जाए की फेल होना बहुत ही साधारण सी बात हैअसल ज़िंदगी में सौ बटा सौ नम्बर नहीं मिलते। फेल हो गए तो कोई पहाड़ नहीं टूट गया। एक परीक्षा में पास या फेल होने से जिंदगी निर्धारित नहीं होतीजीवन अपने आप में एक निरंतर होने वाली प्रतियोगिता ही हैइसमें कोई पास कोई फेल नहीं हैरोज़ होने वाला अनुभव ही तो वास्तव में जीवन है। माँ-बापशिक्षकदोस्तसमाज एक ऐसा अदृश्य दबाव बना देते हैं जिसमें आई॰आई॰टी॰मेडिकलसी॰ए॰ अथवा आई॰ए॰एस॰ नहीं बने तो जीवन ख़राब हैइनके अलावा मानो बाक़ी सारे रोजगार छोटे हैं और इन रोजगारों को करने वाले सभी फेलीयर। माँ-बाप बच्चों के रिपोर्ट कार्ड को अपना विजिटिंग कार्ड बनाने लगते हैं। हर माँ-बाप अपने बच्चे से यह कहता है कि जब तू छोटा था तब फर्स्ट आता था। इसलिए ज़िंदगी भर हर बच्चा फर्स्ट ही आता रहे। अभिभावक तनिक देर ठहर ये सोचें कि अगर सभी बच्चे प्रथम आ गए तो द्वितीय कौन आएगाशिक्षकों को भी अपनी कक्षा में सभी बच्चे सौ प्रतिशत वाले चाहिएँकोचिंग संस्थानों को अपना हर छात्र आई॰आई॰टी॰ तथा एम्स में चाहिए। 


आज एक नई दौड़ चल पड़ी है जहां सभी को मोटिवेशनल स्पीकर बनना है। बहुत जल्दी यह समय आ जाएगा जब सभी मोटिवेट करने वाले होंगेहोने वाला कोई ना बचेगा। कदाचित विद्यालयों को यह चाहिए कि वे बच्चों को बताएं कि अगर सभी डॉक्टर हो जाएंगे तो मरीज कौन होगा?


अगर आई॰आई॰टी॰आई॰आई॰एम॰ सफलता की कुंजी होते तो ऐसा क्यूँ है कि आज ऐसे प्रतिष्ठित संस्थानों को भी अपने छात्रों की प्लेसमेंट करने में दाँतों तले उँगलियाँ दबानी पड़ रहीं हैं। अनेकों डॉक्टरइंजीनियर डिग्री लेने के बावजूद कुछ और कर रहे हैं और सफलता के शीर्ष तक पहुँच रहे हैंशायद अगर वे अपनी प्रथम डिग्री के पेशे को अपनाते तो आज उन्हें कोई ना जानता। संगीत सम्राट एल॰ सुब्रमण्यम की प्रथम डिग्री एम॰बी॰बी॰एस॰ हैउन्हें यह डिग्री पूरी करनी पड़ी क्यूँ कि उनकी माता जी नहीं चाहती थी कि वे डिग्री छोड़ संगीत की पढ़ाई करें। आज के दौर के मशहूर लेखकफ़िल्म निर्देशक एवं कमीडीयन वरुण ग्रोवर की पहली डिग्री इंजीनियरिंग है। प्रसिद्ध कवयित्रीलेखिका एवं संपादक श्रीमती अनिता सुरभि दक्षिण हरियाणा के एक साधारण से शहर से पढ़ कर निकलीजिस समय ज्यादातर लड़कियाँ स्नातक की पढ़ाई कर शिक्षिका बनने तक को ही अपने जीवन का धेय समझती थीउन्होंने अपने लेखन के जुनून को अपनाया और आज हिंदी संपादक के क्षेत्र में उनका नाम प्रथम पंक्ति में लिया जाता है। अनेकों ऐसे उदाहरणों से यह समझा जा सकता है कि कोई भी प्रतियोगितापरीक्षा एवं डिग्री इंसान की सफलता की गारंटी नहीं है। उसकी सफलता की गारंटी है उसका मनोबलउसका जुनून एवं उसके हृदय की प्रसन्नता।


यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होना चाहिए कि स्कूल में हर कक्षा में यदा-कदा बच्चों को किसी ना किसी विषय के इम्तिहान में फेल भी किया जाना चाहिए। 15 साल की स्कूली शिक्षा में कम से कम 10 से  12 बार हर छात्र को यह अनुभव मिलना चाहिए। जब बच्चे यह समझ जाएंगे कि फेल होना जीवन में एक साधारण सी घटना है और इसको सुधारा भी जा सकता है। तब वे कभी भी आत्महत्या जैसे कुंठित विचार को अपने जीवन का आखिरी विकल्प नहीं बनने देंगे। अमृत काल में भारतवर्ष के हर बालक का मनोबल वज्र के समान कठोर हो जिस से वे नकारात्मक विचार तथा अवसाद (डिप्रेशन) जैसी बीमारियों को अपने पास भटकने ना दें। 

 

-    जगदीप सिंह मोरशिक्षाविद 

 

Comments

Popular posts from this blog

My Article In The Millennium Post Newspaper on the Pathos of the Education System of India

Toothless Teachers - Tough Students