सच्चिदानंद है सनातन
आजादी के इस अमृत काल में जहां भारत एक ओर चाँद की ऊँचाइयों को छू रहा है वहीं दूसरी तरफ़ कुछ लोग भारत की अखंड विरासत एवं संस्कृति ‘सनातन’ को ही मिटाने की बात कर रहे हैं। पूरे विश्व में सिर्फ़ सनातन ही वो सभ्यता है जो अब तक जीवित है बाक़ी सभी पुरातन सभ्यताएँ तो धरातल के गर्भ में कबकि समा चुकीं हैं। अनंत काल से इस सभ्यता को बाहरी एवं भीतरी चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। आज भी वही चुनौतियाँ ज़िंदा है, एक तरफ़ जहां हमारे पड़ोसी मुल्क इस देश के टुकड़े होते देखने का सपना बुनते हैं वहीं श्री स्टालिन उनके पुत्र श्री उदयगिरि उनके मंत्री श्री ए॰ राजा द्वारा सनातन के खात्मे के लिए दिए बयान कुछ ऐसी ही चिंताजनक बातें हैं।
जो लोग सनातन को जानते ही नहीं वे ही ऐसी बचकानी बातें कर सकते हैं, यह उतना ही हास्यास्पद है जैसे विज्ञान को ना जानने वाला व्यक्ति नैनो तकनीक और नैनो कार का भेद नहीं समझ पता। जबसे यह बयान आया है तब से देश को प्यार करने वाले हर व्यक्ति ने अपनी नाराज़गी मुखर स्वर में दर्ज करवाई है।
पंत एवं सम्प्रदाय विशेष को जानने के लिए उसके कर्म कांड को जान लो तो काम चल जाता है। पंत एवं सम्प्रदाय के अनुयायी इसी कर्म कांड द्वारा अपने अपने पंत एवं सम्प्रदाय को ऊंचा बताने में लगे रहते हैं। इस धरती के सभी पंत एवं सम्प्रदाय किसी ना किसी निर्धारित काल खंड में रचे गए और उनकी प्रगति की धारा को व्यक्ति विशेष से जोड़ा जा सकता है तथा समय रेखा पर उकेरा जा सकता है। किंतु सनातन एक ऐसी जीवन धारा है जिसका ना आदि है ना अंत। सनातन को समझने के लिए धर्म की परिभाषा को समझना होगा। अक्सर लोग धर्म को अंग्रेज़ी के शब्द रिलिजन के जोड़ देते हैं, किंतु धर्म रिलिजन से कहीं विस्तृत है। आसान भाषा में कहा जाए तो धर्म वह है जो अनंत सच है, जो परिस्थिति के काल में न्याय है, जो तार्किक है, जो चेतन को जड़ता के बोध से अलग करता है, धर्म जीवन जीने की मर्यादा है। व्यक्ति कोई भी हो धर्म सुदृढ़ है, धर्म वह संभल है जो परिस्थितियों से लड़ने में मदद देता है। यही सनातन धर्म, भाषाई अपभ्रंश के कारण कभी सिंधु धर्म के नाम से जाना गया तो कभी हिन्दू धर्म के नाम से विख्यात हुआ। उत्तर में विशाल हिमालय से ले कर दक्षिण में महासागर तक के बीच की धरती का यह भाग भारतवर्ष इसी महान सनातन धर्म के कारण आज तक कालजयी बना रहा है।
सनातन का अर्थ है जो शाश्वत हो, निरंतर हो, जो जन्म और मृत्यु से परे हो, जो मनुष्य उत्पत्ति से भी प्राचीन हो, सनातन मनुष्य मात्र का धर्म नहीं वरन सृष्टि की नियमावली है। सनातन ही शिव है, सनातन सच्चिदानंद है, यह तो वह अविरल धारा है, जिसके अनुसरण से मनुष्य कल्याण के मार्ग पर अग्रसर होता है। सनातन समय की कसौटी पर खरा उतरा वह गुलदस्ता है जिसने काल की असंख अच्छाइयों को अपने अंदर समा लिया। इतनी समावेशी विचारधारा धरा पर कहीं देखने को नहीं मिलती। जहां दूसरे पंत एवं सम्प्रदाय अपनी हज़ारों वर्षों की जड़ताओं में जकड़े हुए हैं और लेश मात्र भी प्रगतिशील नहीं होना चाहते वहीं सनातन ने अपने अनुयायियों को खुला आसमान मुहैया करवाया। सनातन में कोई भी मनुष्य किसी भी एक विचारधारा का गुलाम नहीं हुआ। सबको अपने तरीके से अपने सच्चिदानंद तक पहुँचने की छूट दी। शिव, विष्णु, शक्ति, राम, कृष्ण, देवी, देवता, मनुष्य, पितर, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, नर, नारी, पशु, अर्ध पशु, वृक्ष, पक्षी, प्रकृति सबको पूजने या माध्यम बनाने की छूट देने वाला है सनातन। पिछले कुछ हज़ार साल के इतिहास पर अगर नजर डालें तो पेगान, बुद्ध, जैन, इस्लाम, यहूदी, पारसी, ईसाई, सिख एवं अनेकों पंतों को मानने वाले जैसे साईं बाबा इत्यादि को चुन चुन कर मनोहर फूल की भाँति अपने गुलदस्ते में पिरोने वाला सनातन आज कुछ लोगों को चुभ रहा है। सनातन ने तो चार्वाकों, नास्तिकों, तांत्रिक एवं वामपंथियों को भी उचित स्थान दिया। ऐसी समावेशी जीवन शैली को मिटाने की बात करना कुछ गहरी साजिश की तरफ इशारा है।
श्री स्टालिन का कहना है कि वे जातिवाद पर प्रहार कर रहे थे। कोई उनसे पूछे कि जातिवाद का खंडन करते हुए बौद्ध धर्म आया पर क्या बुद्ध बने नागरिकों में जातिवाद खत्म हो गया? इस्लाम ने बहुएकवाद का डंका बजाया, परंतु उसमें अनेक पंत उत्पन्न हो गए मसलन शिया, सुन्नी, अहमदिया, मेव इत्यादि क्या यह सब एक समान हैं? इनमें तो खुद लड़ाई हैं। ईसाइयों में अपने मसले हैं, कोई खुद को उच्च का ईसाई बताता है तो किसी को निम्न दृष्टि से देखतें हैं। जातिवाद एक राजनीतिक उत्पत्ति है, इसमें अर्थ के अवगुण भी समाहित हैं। जातिवाद को तोड़ना है को शिक्षा पर पुरज़ोर निवेश करना होगा, आर्थिक सशक्तिकरण ही एकमात्र साधन है जो इन विषमताओं को तोड़ पाएगा। परंतु ये राजनेता समाज में सौहार्द बनाना नहीं चाहते, अपने चुनावी कारणों के चलते समाज को बाँटना इनकी मजबूरी हो जाता है।
‘टु अबॉलिश सनातन’ ऐसे आयोजन करना ही एक बड़े अनुसंधान की ओर इशारा है। एक पल के लिए मान लो कि सनातन नहीं है, फिर क्या यह लोग वहीं तक रुक जाएंगे? इस रिक्त स्थान को भरने के लिए क्या आसमानी किताब को लाया जाएगा या परमेश्वर के साम्राज्य के सिद्धांत का अनुकरण किया जाएगा या फिर कार्ल मार्क्स की दास कैपिटल इनकी नई नियमावली होगी?
लोगों को यह समझना होगा कि सनातन तो मनुष्य की उत्पत्ति से पहले भी था वो तो उसके बाद भी रहेगा। परंतु क्या सनातन ने बिना मनुष्य मात्र को कोई अस्तित्व रह जाएगा? क्या मनुष्य खुद अपने पाँव में बेड़ियाँ पहनने को स्वीकार करेगा? सनातन धर्म को खत्म करने की बात करना शायद मनुष्य मात्र के खात्मे की बात करने जैसा ही है। परंतु इस जीवित संस्कृति को मिटाना इतना आसान नहीं होगा। मशहूर कवि इक़बाल का यह पंक्तियाँ इस दौर में सटीक बैठती हैं-“यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रोमा सब मिट गए जहाँ से, अब तक मगर है बाकी नामों निशां हमारा, कुछ तो बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-जमां हमारा, सारे जहाँ से अच्छा हिंदुस्तान हमारा”।
- जगदीप सिंह मोर, शिक्षाविद
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