बच्चों को तनाव देने से बचें शिक्षक एवं अभिभावक


 बच्चों को तनाव देने से बचें शिक्षक एवं अभिभावक 

एक अप्रैल से शिक्षा का नया सत्र प्रारम्भ हो गया। पूरे दो साल के कोरोना लॉकडाउन के विलम्ब के पश्चात स्कूल दुबारा सुचारू रूप से खुल गए। नवीन सत्र में कक्षाएँ पूर्ण उपस्थिति के साथ यथारूप शुरू हो गयी। छात्रों, अभिभावकों एवं शिक्षकों में हर्ष देखते ही बन रहा था। परंतु यह हर्ष क्षणिक था और देखते ही देखते बच्चे तनाव ग्रस्त होने लगे। जहां एक ओर विद्यालयों में शिक्षकों ने दबाव बनाया वहीं दूसरी ओर घर में माता-पिता ने अपेक्षायें आसमान तक बांध लीं, इस दबाव की चक्की में बेचारे बच्चे फंस गए।

यह बात सत्य है कि पिछले दो सालों में बच्चों की पढ़ाई का बहुत नुकसान हुआ है, बच्चों की लिखने की क्षमता बिलकुल शून्य हो गयी है। बच्चे गणित के पहाड़े भी भूल चुके हैं, एवं विज्ञान के सूत्र भी उन्हें याद नहीं। शिक्षकगण एवं अभिभावकों को यह ज्ञात होना चाहिए की छात्रों की जो पढ़ाई रूपी गाड़ी पटरी से उतर चुकी थी, उसे दोबारा पटरी पर आने में थोड़ा वक़्त लगेगा। अभी सत्र शुरू हुए सिर्फ़ दस दिन ही हुए हैं की विद्यालयों ने छात्रों को भर-भर के काम देना शुरू कर दिया है। दिन रात बच्चों को घर एवं स्कूल में यह ताने दिए जा रहे हैं: "सब कुछ भूल गए हो तुम!"; "यह भी याद नहीं?"; "बहुत हो गयी मस्ती, अब बच्चू लग जाओ काम पर" इत्यादि। सभी एक ही दिन में पहले वाला अनुशासन लाना चाह रहे हैं। यह भी देखा जा रहा है कि कुछ विद्यालय अतिरिक्त पिरीयड भी लगा रहे हैं, स्कूल का समय सात-आठ घंटे का हो रहा है।विद्यालयों में प्रातः सभा में लंबे-लंबे भाषण दिए जा रहे हैं, जहां बच्चों को खड़ा रहना पड़ता है, ऐसा प्रतीत होता है जैसे प्रधानाचार्य महोदय को कोई खोया खजाना मिल गया हो। फिर सभी शिक्षक अपने अपने विषयों के अपार सागर में छात्रों को डुबोना शुरू कर देते हैं। हर शिक्षक अतिरिक्त गृह कार्य देने में जुटा दिखाई देता है। पाँचों विषय के गृह कार्य को जोड़ दिया जाए तो वह कम से कम तीन घंटे ज़रूर लेगा पूर्ण होने में। सत्र शुरू होते ही अभिभावक भी कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते, उन्होंने अभी से ही ट्यूशन एवं कोचिंग में अपने बच्चों का दाखिला करवा दिया है। स्कूल के पश्चात् ट्यूशन फिर गृह कार्य को जोड़ दिया जाए तो बच्चों के पास साँस लेने की फुर्सत भी नहीं बचती। 

विद्यालयों एवं माता पिता को यह समझना होगा की अभी तक तो छात्र स्वछंद थे, उन पर कोई दबाव नहीं था, एकाएक उन पर कड़े अनुशासन को लादना ठीक नहीं होगा। एकदम से आए इस बदलाव के कारण छात्र मानसिक तनाव महसूस करने लगे हैं, उनके मन में शिक्षा के प्रति भय बनने लगा है। बार बार उनके ऊपर तंज कसने से वे ऐकाकी महसूस करने लगे हैं। स्कूल खुलते ही माता पिता ने अपना रवैया बदल लिया है तथा बहुत प्यार करने वाले दादी-दादा भी उनके सहायक होते नहीं दिखायी दे रहे हैं। बच्चों की मनोदशा कोई नहीं समझ रहा है। मौसमी बदलाव एवं असहनीय गर्मी ने भी विद्यार्थियों की पीड़ा दोगुनी कर दी है। जहां पहले बच्चे अपनी मर्ज़ी से सुबह उठ रहे हैं, वहीं अब उन्हें जल्दी जागना पड़ रहा है और स्कूल के लिए तैयार होना होता है, ऐसे में रूटीन ना बन पाने के कारण, सम्भवतः वे बिना नाश्ता किए ही स्कूल पहुँच रहे हैं। भूखे पेट प्रातः सभा में खड़े होना, एवं चार-पाँच पिरीयड बाद लंच ब्रेक तक रुकना उनकी हताशा और बढ़ा देता है। स्कूल के बाद ट्यूशन एवं कोचिंग जाने के कारण उनको आराम नसीब नहीं हो रहा है। यकायक आए इस जटिल बदलाव ने छात्रों को झकझोर कर रख दिया है।

वरिष्ठ मनोवैज्ञानिक श्री विकास अत्री सलाह देते हैं की आज शिक्षकों एवं अभिभावकों को परिपक्वता दिखानी होगी। निजी स्कूल मैनेजमेंट को भी यह ध्यान रखना होगा की वे प्रतियोगिता की अंधी दौड़ में छात्रों के मानसिक दबाव का बेहद ध्यान रखें। शिक्षकों को गृह कार्य देने में थोड़ी नर्माई दिखानी चाहिए। माता पिता को भी थोड़ा सब्र रखना होगा, एक दम से हथेली पर सरसों न उगाएं। बच्चे पिंजरे के पंछी नहीं अपितु स्वतंत्र परिंदे हैं। बिना दबाव के वे शिक्षा से प्रेम करेंगे एवं अपनी प्रतिभा को निखारेंगे। बेड़ियों में बंध कर तो वे सिर्फ़ नम्बरों की लड़ाई तक ही सीमित रह जाएँगे।

- जगदीप सिंह मोर, शिक्षाविद                                                                                        


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