नवीन सोच के साथ नवीन शिक्षा नीति




नवीन सोच के साथ नवीन शिक्षा नीति

इतिहास के गुलिस्तां में भारत हमेशा एक स्वर्णिम पुष्प रहा है | विश्व पटल पर हमने मानवता के नए आयाम सबसे पहले प्राप्त किये | प्राचीन काल से ही हम विश्वगुरु रहे | भारतीय गुरुओं ने पूरे संसार को अपने ज्ञान सागर में नहलाया | सिर्फ मन-मस्तिष्क को ही नहीं वरन गुरु ज्ञान ने आत्मा को भी प्रफुल्लित किया है | राजतंत्र व लोकतंत्र दोनों ही के जनक हम रहे | जब ज्यादातर संसार क्रूरता के अभिशाप से ग्रसित था तब हमने विश्वविद्यालय बना लिए थे तथा अनेकों-अनेक बुद्दीजीवी इस पवन ज्ञान सागर में श्वेत हुए जा रहे थे | तक्षिला, नालंदा, विक्रमशिला, पुष्पगिरी जैसे महान शिक्षा संसथान भारत के कालजेई मस्तक का चाँद बन गौरव बढ़ा रहे थे | हम विज्ञान, अर्थ, गणित, खगोल्शास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, जीवशास्त्र एवं अध्यात्म के अजेय सेनानी थे | प्राचीन भारतीय शिक्षा एक ऐसा प्रतिरूप थी, जिसने पूरे समाज को प्रबुद्द किया | गुरुकुल परंपरा से ले कर सांख्य दर्शन तक हम सबसे अग्रसर रहे | हमारी शिक्षा किसी मिथक पर नहीं बल्कि तर्क आधारित रही, तर्कसंगत छात्र ही आगे चलकर न्यायसंगत राजा बने |

समय बदला और आतातायियों ने हमारे ऊपर आक्रमण किये; तक्षिला, नालंदा जैसे उत्कृष्ट शिक्षा संसथान नष्ट कर दिए गए | परन्तु फिर भी वे हमारी गुरु-शिष्य परंपरा को नष्ट नहीं कर पाए | समय के साथ नए बदलाव आये व काशी जैसे क्षेत्र शिक्षा के नवीन मंदिर बन कर उभरे | आधुनिक भारत के इतिहास में यदि किसी एक व्यक्ति को ‘शिक्षा-क्षति’ का दोषी व जनक माना जाये तो वो है लार्ड मैकाले | आज का पूरा शिक्षा मॉडल इन्हीं की देन है | गुरुकुल परंपरा योजनाबद्ध तरीके से नष्ट करी गई तथा स्कूली शिक्षा व्यवस्था का स्वरुप तैयार हुआ | एक नई सोच के साथ शिक्षा का प्रादुर्भाव हुआ – यह नई सोच थी ‘नौकरों, गुलामों तथा क्लर्कों का भारत बनाना जिससे हुकुमरानों के हुकुम का पालन हो सके’ | हुआ भी कुछ ऐसा ही, शिक्षा अब आम आदमी की पहुच से दूर हो गई | आज़ादी के बाद इस क्षेत्र से बड़ी उम्मीदें थी, पर दिवालियापन की बेड़ियों में बंधे देश के सामने और भी कई बड़ी चुनौतियाँ थी |

शिक्षक, छात्र एवं विषय, ये तीन शिक्षा क्षेत्र के अभिन्न बिंदु हैं | इन्हीं तीन बिन्दुओं पर शिक्षा पिरामिड खड़ा है | शिक्षाविद मानते हैं की आज हम शिक्षा के तृतीय चरण में आ चुके हैं | प्रथम चरण में शिक्षक प्रमुख हुआ करता था ना कि छात्र या विषय | शिक्षक अपने अनुसार विषय चुनाव करता तथा छात्र को उसकी योग्यता अनुसार दीक्षा देना शिक्षक का कर्तव्य था | दुसरे चरण में फोकस शिक्षक से हट कर विषय पर आ गया | अब विषय महत्त्वपूर्ण था, ना की शिक्षक या छात्र | हम सब जिनकी स्कूली शिक्षा नव्वे के दशक तक की है, वे इसी द्वितीय चरण के उत्पाद हैं | बाज़ार में हर विषय की किताब, गाइड, कुंजी इत्यादि उपलब्ध थी, शिक्षक ना भी हो तब भी परीक्षा दी जा सकती थी | इसी दौरान विज्ञान, कॉमर्स व आर्ट्स संकाय की अंधी दौड़ शुरू हुई | आज हम तृतीय चरण में हैं, अब सारा ध्यान छात्र के ऊपर केन्द्रित है, ना ही शिक्षक महत्वपूर्ण है ना विषय | विद्यालयों ने  छात्रों को एक मूल्यवान ग्राहक के रूप में देखना शुरू किया, ये बात दो दशक में इतनी आम हो गई और छात्रों के अकिंचन मन में घर कर गई की हम स्कूल से नहीं हैं, बल्कि स्कूल हम से है | इसी सोच के दुष्परिणाम आज हमें देखने को मिल रहे हैं |  पिछले पांच महीनों में ऐसी आधा दर्जन घटनाएं हुई जिसने पूरे शिक्षा जगत को ही झकझोर के रख दिया | कहीं सहपाठी का क़त्ल तो कहीं प्रधानाचार्या कि गोली मार कर हत्या | जो नैतिकता हमारी पहचान हुआ करती थी, वो आज इस कदर धूमिल हो गई है की, हमारे सबसे पवित्र माने जाने वाले संस्थान भी लहू-लुहान हो गए |            

शिक्षा बजट पिछले सत्तर सालों में कभी भी चार प्रतिशत का आंकड़ा नहीं छू पाया जिसका दुष्परिणाम अब दिखने लगा है | इस बार के बजट भाषण में वित्त मंत्री श्री अरुण जेटली जी ने इस विषय को भी छुआ | उन्होंने नर्सरी से बारहवीं तक एक शिक्षा नीति लाने का प्रस्ताव रखा  व शिक्षकों की इन-सर्विस ट्रेनिंग पर बल दिया | आज़ादी के बाद से अब तक अनेकों-अनेक बार शिक्षा नीति बनायीं गई, कई कमिशन बिठाये गए परन्तु हम आज तक पूरे देश के लिए कुछ भी ठोस करने में असमर्थ रहे | शिक्षा भी राजनीति की भेंट चढ़ गई | हर पार्टी अपने अनुरूप इतिहास लिखने में लगी रही, जिसने जितने दिन राज किया, उसका उतना ही प्रबल इतिहास बनता चला गया | यही कारण है की आज एक फिल्म भारत-बंद करवाने में सक्षम हो जाती है, और तुगलकी फरमान आना एस.ऍम.एस. आने जैसा हो गया है |

आज समय की मांग है की हम शिक्षा जगत को पुनर्जीवित करें | प्राचीन काल में जहाँ गुरु का स्थान सबसे अग्र्निम था, जहाँ गुरु राजा से भी अधिक सम्मान का पात्र था वहीँ आज एक शिक्षक होना समाज के व्यवसायों में हीन हो गया है | बात कडवी है पर सच है – आज सोशल मीडिया पर ऐसे मेसेज आम हो गए हैं जो शिक्षकों का मखौल उड़ाते हैं ओर उनकी हीनता को जगजाहिर करते हैं | ‘जो कुछ नहीं बन सका वो शिक्षक बन गया’; ‘अध्यापक बनना आधा दिन का काम है और वो भी सिर्फ महिलाओं के लिए उपयुक्त है’, ऐसी समाज की धारणा बन गई है | आप स्कूल में पढ़ रहे छात्रों से अगर पूछे तो सभी बच्चे डॉक्टर, इंजिनियर बनना चाहते हैं पर शिक्षक कोई नहीं बनना चाहता | परिवार में पूछ लीजिये की कौन कौन अपने लड़के को अध्यापक बनाना चाहता है, मेरा दावा है कि एक भी अभिवावक अपने बच्चे को अध्यापक नहीं बनाना चाहेगा | ऐसा क्या हुआ की शिक्षक बनना इतना हेय-व्यवसास बन गया? सरकारी अध्यापक तो फिर भी बन जायेंगे क्यूँ की उसमें नौकरी की सुरक्षा है, प्राइवेट स्कूल में अध्यापक बनना कोई नहीं चाहता | देश भर में ऐसे लाखों निजी स्कूल चल रहे हैं जिनमें अध्यापकों की पगार एक हजार रुपए से ले कर दस हजार रुपए तक है | सिर्फ मुट्ठी भर ही ऐसे स्कूल हैं जो सरकारी मानकों के अनुसार वेतन भुगतान कर रहे हैं | यहीं कारण रहा की अच्छे शिक्षक कम होते चले गए, और शिक्षा का स्तर भी निम्न होता गया | जब कोई अध्यापक बनना ही नहीं चाहेगा तो अध्यापक आयेंगे कहाँ से? फिर ये ही होगा की डॉक्टर, इंजिनियर बन ना सके तो अब क्या करें? दिल्ली, मुंबई की बात छोड़ दें तो हर शहर में निजी स्कूल के शिक्षक की हालत पतली ही है | बारहवीं तक आते आते बच्चों की पॉकेट-मनी टीचर की तनखा से ज्यादा हो जाती है | अब ऐसे में बेचारा अध्यापक किस बात का रौब दिखाए? ना ज्ञान में श्रेष्ठ, ना धन में, रुतबा तो बचा ही नहीं | क़ानूनी तौर पर भी अध्यापक ही पिस गया, सारे कानून छात्र-प्रधान हो गए, शिक्षक के हिस्से में तो दंड ही आया | आज एक शिक्षक से जियादा रौब तो एक बाबु झाड लेता है और जब मन करे तब हड़ताल पर भी बैठ सकता है | बेचारा शिक्षक तो ये भी नहीं कर सकता | समय आ गया है की समाज खुद भी अपने अंतर्मन में इस बात की विवेचना करे की जब शिक्षक को इस कदर दैनियय बना दिया है तो फिर बच्चों के व्यवहार पर किस बात का चौकना ? दुनिया में वो ही व्यवसाय बुलंदी पर पहुचे, जहाँ काम करने वालों को उच्चतम मान सम्मान व वेतन मोहिया कराया गया | भारतीय शिक्षक इन दोनों से वंछित रह गया, तभी आज पूरी शिक्षा प्रणाली भरभरा के गिरती नज़र आ रही है |  

नई शिक्षा नीति में इस ओर ध्यान देना बहुत ज़रूरी है, अगर हम शिक्षा की गुणवत्ता की बात करते हैं तो हमें गुणवत्ता के अनुरूप ही अवसर भी प्रदान करने होंगे | आने वाली शिक्षा नीति में ये ध्यान रखा जाये की अच्छे डॉक्टर, इंजिनियर, सी.ए., मेनेजर, वकीलों के लिए भी स्कूली शिक्षक बनने के द्वार खुले हों, जिससे वे एक नए भारत का निर्माण कर सकें | अपने व्यवसाय के साथ साथ वो शिक्षा जगत में भी अपना योगदान दे सकें | और ये सब ‘स्वेच्छा से अपने सेवा समर्पित’ करने के आधार पर नहीं हो सकता | इसके लिए नीतिगत बदलाव लाने की आवश्यकता है, तथा उच्चवेतन प्रणाली इसमें नए आयाम खोलेगी | आज जहाँ भारत की सत्तर प्रतिशत आबादी पैतीस साल से कम उम्र की है, वहां यह अनिवार्य हो जाता है की हमारे पास अच्छे शिक्षक हों | जहाँ फ़िनलैंड, नॉर्वे एवं स्वीडन जैसे देश अपनी शिक्षा नीति के आधार पर विश्व में सबसे श्रेष्ठ स्थान पर बैठे हैं वहीँ हम साल दर साल फिस्सडी होते जा रहे हैं | नवीन शिक्षा नीति को विस्तृत करना होगा जिसमें सैधांतिक, कलात्मक, रचनात्मक व व्यवहारिक ज्ञान का मिश्रण हो | अर्तिफ़िशिअल इंटेलिजेंस के इस युग में ऐसे शिक्षकों की आवश्यकता होगी जो भविष्य के न्यूटन, आइंस्टीन, रामानुजन तथा कलाम पैदा कर सकें |  यह काम अब रुढ़िवादी पद्दति पर चल कर हासिल नहीं किया जा सकता | इसके लिए उपयुक्त बजट, सोच एवं संकल्प की ज़रूरत होगी | अगर भारत को दुबारा विश्वगुरु बनाना है तो सरकार को वोटबंक की राजनीति से परे देखना होगा | हमें यह तय करना होगा की हम कौन सा इतिहास अपने बच्चों को देना चाहते हैं, क्यूँ की एक ही देश में मेरा इतिहास कुछ और आपका कुछ और नहीं हो सकता | ‘लर्निंग-बाय-डूइंग’ के इस युग में हमें स्कूलों की कम बल्कि जीती-जागती प्रयोगशालाओं की आवश्यकता है |

शिक्षा जगत के बुनियादी ढांचे को बनाने, सँवारने व चलाने वाले अगर उत्कृष्ट होंगे तो इसमें से निकलने वाले बच्चे खुद-ब-खुद देश के लिए उपयोगी साबित होंगे | आज सबसे प्रबल ज़रूरत है की शिक्षक का खोया हुआ सम्मान उसे लौटाया जाये, एवं शिक्षा क्षेत्र  को इतना मोहक व आकर्षक बनाया जाये की यह हर काम करने वाले की पहली पसंद बन जाये, तभी हम सबसे श्रेष्ठ बुद्धिजीवीयों  को इससे जोड़ पाएंगे | ‘जैसा गुरु, वैसा चेला’ कहावत दोनों तरह से सटीक बैठती है, यह हमारे ऊपर है की हम इसकी क्या परिभाषा रचना चाहते हैं |

जगदीप सिंह मोर, शिक्षाविद

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