बच्चे तो हैं पर बचपना नहीं - बाल दिवस विशेषांक


                  बच्चे तो हैं पर बचपना नहीं

हर भारतवासी मंगलवार को देशभर में बाल दिवस मनाएगा, तब यह विचार मन में ज़रूर उठेगा की आखिरकार ये बच्चे हैं किसके? सिर्फ माँ-बाप के, अध्यापकों के, समाज के या फिर पूरे भारतवर्ष के? भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरु का जन्मदिन देश भर में बाल-दिवस के रूप में मनाया जाता है | 1964 से इस दिन को बड़े पैमाने पर मानाने का चलन शुरू हुआ | यह नेहरु जी का बालप्रेम ही था जिसने उन्हें प्रधानमंत्री की बेड़ियों को तोड़ते हुए बच्चों का चाचा नेहरु बना दिया | नेहरु जी हमेशा कहते थे कि बच्चे भारत का स्वर्णिम भविष्य हैं | वे युवा वर्ग को हमेशा प्रगति के मार्ग पर अग्रसर होते हुए देखना चाहते थे, जिसके लिए उन्होंने एम्स, आई.आई.टी एवं आई.आई.ऍम जैसे उत्कृष्ट संस्थानों की आधारशिला रखी |

परन्तु हाल ही में हुई रयान इंटरनेशनल स्कूल गुरुग्राम की घटना ने पूरे हिन्दुस्तान को झंकझोर कर रख दिया है | यह सोच पाना भी मुश्किल है की एक ग्यारहवी का छात्र सिर्फ परीक्षा टालने के लिए सात साल के एक मासूम का क़त्ल कर देगा | यह कोई एकल घटना नहीं है, पिछले दो वर्षों में ऐसी अनेक घटनायें सामने आई हैं जो यह दर्शाती हैं कि समाज में एक बहुत ही खतरनाक परिवर्तन स्वरुप ले रहा है | रयान स्कूल जैसी ही घटना कुछ महीने पहले फरीदाबाद के सीकरी स्थित एक स्कूल में हुई थी | विगत सितम्बर महीने में ही यह खबर आई थी की दिल्ली के नांगलोई में बारहवीं के दो छात्रों ने कक्षा में ही शिक्षक पर चाकू से वार कर दिया, क्यूँ की उनकी कम उपस्थिति के कारण शिक्षक ने उन्हें परीक्षा में बैठने से मना कर दिया था | बाद में अस्पताल में शिक्षक की मृत्यु हो गई | पिछले महीने हरियाणा के बहादुरगढ़ में ऐसी ही एक घटना स्कूल के सी.सी.टी.वी. में कैद हुई, जिसमें कक्षा बारहवीं के छात्र ने शिक्षक पर धारदार हथियार से ताबड़तोड़ हमला कर दिया क्यूँ की उसके गणित में कम नंबर आये थे | पहले ऐसी खबरें अमरीका या पश्चिमी देशों के स्कूलों में सुनने को मिलती थी, तब हम बड़ी शान से दुनिया के सामने अपनी संस्कृति एवं विरासत की दुहाई देते थे |

आज ये खबरें भारत में आम हो रही हैं | ऐसी घटनाये सुन कर मन सिहर उठता है और यह सोचने पर मजबूर कर देता है की हम कहाँ आ गए हैं? कहीं हमारे बच्चों का पतन तो नहीं हो रहा है? आखिरकार बच्चों का बचपना कौन छीन रहा है ? इस पतन की जिम्मेवारी कौन लेगा ? क्या इसका कारण संयुक्त परिवारों का टूटना, इन्टरनेट व टेलीविज़न का जीवन में समावेश, बेलगाम छूट या फिर समय का आभाव है ? हादसा होने के बाद दोष किसके सिर पर मढ़ा जायेगा? दोष किसी का नहीं है, दोष है हमारी सोच का; हम अभी भी समाज के बदलाव को स्वीकार करने में झिझक रहे हैं| 

समय आ गया है की इस बात को हम सब स्वीकार लें की बच्चे उम्र से पहले ही परिपक्व हो रहे हैं | समय की इस मांग को देखते हुए, शिक्षापद्यति में भी बदलाव की आवश्यकता है | माता-पिता को भी ज्यादा सतर्क रहने की जरुरत है | हाल ही में यूनिस्को द्वारा प्रकाशित ग्लोबल एजुकेशन मॉनिटरिंग रिपोर्ट में इसी ज्वलन्त विषय को उठाया गया है | रिपोर्ट में लिखा है की शिक्षा-क्षेत्र की जिम्मेवारी से कोई अपने को अगल नहीं रख सकता | सरकार, स्कूल, शिक्षक, अभिभावक तथा बच्चे सभी को मिलकर इस जिम्मेवारी का निर्वाहन करना होगा, तभी सकारात्मक परिणाम दिखेंगे | गौरतलब है की यूनिस्को जैसी संस्था भी समय के बदलाव को पहचान रही है इसीलिए अब बच्चों को भी जिम्मेवारी के दायरे में रखा गया है |

किसी एक के करने से कुछ नहीं होगा | आओ इस बाल-दिवस हम सब मिलकर यह प्रण करें की हम सब अपने-अपने उतरदायित्व का मिलकर निर्वाह करेंगे तथा भारत को चाचा नेहरु के सपनों का भारत बनायेंगे, तब ही असल मायनों में हमारा बाल-दिवस मनाना सार्थक होगा |                          

-    जगदीप सिंह मोर, शिक्षाविद

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